#5. हर प्रारूप के लिए अलग खिलाड़ी

2009 की तुलना में अब भारतीय टीम एक या दो खिलाड़ियों पर निर्भर नहीं है। उनके पास अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग खिलाड़ी उपलब्ध हैं। हर खिलाड़ी टीम में अपने महत्वपूर्ण योगदान देने के किए हमेशा तत्पर रहता है। इस टीम में, पहले की तुलना में असफलता का डर अब मौजूद नहीं है।
नए-नए तकनीकों का इस्तेमाल और उस पर निर्भरता
2009 में भारतीय क्रिकेट, निर्णय लेने के लिए नए तकनीकों का उपयोग करने में असहमति दिखाई थी। लेकिन अब, नेतृत्व में बदलाव के कारण नज़रिए और सोच में बदलाव आया और धीरे-धीरे नए तकनीकों के इस्तेमाल पर सहमती बनी है। यह बदलाव, भारतीय क्रिकेट में एक अच्छा कदम साबित हुआ है।
अंपायर की कॉल, हॉटस्पॉट, स्निकोमीटर, हॉकआई, अल्ट्रा एज और सॉफ्ट सिग्नल जैसे चीज़, भारतीय क्रिकेट में 10 साल पहले की तुलना में अब ज्यादा सुनने और देखने को मिलते हैं।
भारतीय टेस्ट टीम में अगल-अलग भूमिका वाले खिलाड़ियों की भरमार
2009 में भारतीय टेस्ट टीम में सिर्फ विशेषज्ञ ही शामिल थे। लेकिन समय के साथ ही, अगल-अलग भूमिका निभाने वाले खिलाड़ियों को टेस्ट टीम में जगह मिलनी शुरू हो गई। जिन्हें सीमित ओवर क्रिकेट के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता था, उन्हें टेस्ट में शीर्ष ग्यारह में जगह मिलने लगी। हार्दिक पांड्या और ऋषभ पन्त जैसे खिलाड़ियों ने टेस्ट टीम में अपनी जगह बनाई है।
विदेशों में जडेजा या अश्विन में किसी खिलाड़ी को टीम के संतुलन को बनाए रखने के लिए एक ऑलराउंडर की भूमिका निभानी पड़ती है। एक उद्हरण के तौर पर आप खुद ही देखये, वर्त्तमान में एकदिवसीय टीम में सर्वश्रेष्ठ विकेटकीपर बल्लेबाज और टेस्ट टीम में सर्वश्रेष्ठ विकेटकीपर बल्लेबाज। दोनों की खेलने की शैली और टीम में भूमिका बिलकुल ही अलग है।