5 मंत्र जो हम युवराज सिंह के जीवन से सीख सकते हैं

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अपने आकर्षक स्ट्रोक-प्ले और बेहतरीन व्यक्तित्व के साथ, युवराज सिंह वर्षों तक भारतीय क्रिकेट के अभिन्न अंग रहे हैं, यहाँ तक की बढ़ती उम्र के साथ वो और भी ख़ास होते चले गये। हालांकि बहुत से बल्लेबाजों के आकड़ें इनसे ज्यादा बेहतर हो सकते है, लेकिन यह स्टाइलिश बल्लेबाज़ सीमित ओवरों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में से एक की सूची में जरुर जगह बनाता है। उनके सनसनीखेज प्रदर्शन ने 2007 विश्व टी 20 खिताब जीतने के लिये पूरी टीम में एक नई ऊर्जा भर दी, तो 2011 में विश्व कप जीतने वाली टीम के लिये बल्ले और गेंद से युवराज का ऐसा प्रदर्शन रहा कि अंत में उन्हें वो 'प्लेयर ऑफ टूर्नामेंट' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कैंसर से जंग की मार्मिक कहानी ने उन्हें क्रिकेट के मैदान के बाहर भी एक बड़ा हीरो बना दिया। जब अपने पूरे फॉर्म में युवराज मैदान पर होते हैं तो वह विपक्षी गेंदबाजों के लिए एक भयानक स्वप्न होते हैं। आइये पांच महत्वपूर्ण जीवन मन्त्रों पर नज़र डालें जो हम सब इस प्रेरणादायक खिलाड़ी से सीख सकते हैं:


# 5. क्षमता को प्रदर्शन में बदलना

छोटी उम्र से ही युवराज बड़ी सफलता की ओर अग्रसर रहे थे। हालांकि उन्होंने शुरू में रोलर स्केटिंग में अधिक रुचि दिखाई और यहां तक कि अंडर -14 नेशनल चैंपियनशिप जीती, लेकिन फिर बाएं हाथ के खिलाड़ी रूप में पंजाब की अंडर -12 राज्य टीम के साथ क्रिकेट से जुड़ रहे थे। धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए, उन्होंने जमशेदपुर में अंडर -19 कूच बेहर ट्राफी के फाइनल में तिहरा शतक लगाया जिससे वो राष्ट्रीय स्तर पर भी सबकी आँखों में आ गये। श्रीलंका में 2000 अंडर -19 विश्वकप के दौरान, युवराज को 'प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और साथ ही भारत ने इस प्रतियोगिता में अपना पहला खिताब जीता था। उसी साल आईसीसी नॉकऑट टूर्नामेंट के लिए उन्होंने वरिष्ठ टीम में अपना पहला मैच खेला। इस प्रतिभाशाली बल्लेबाज ने अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने में बहुत समय नहीं लिया। उन्होंने क्वार्टर फाइनल में ग्लेन मैक्ग्रा, ब्रेट ली और जेसन गिलेस्पी के घातक गेंदबाजी आक्रमण के खिलाफ 80 गेंदों में 84 रन की पारी खेली। एक बल्लेबाजी सितारे का इस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगमन हो चुका था। 18 साल की उम्र में ही युवराज का इस प्रकार का धमाकेदार प्रदर्शन करते हुए प्रतिभा को प्रदर्शन में परिवर्तित करना एक आदर्श उदाहरण है, कि कैसे किसी भी क्षेत्र में संभावित क्षमता को शुरुआती अवसर सामने आते ही प्रदर्शन में परिवर्तित करना जरुरी है। #4. सकारात्मक सोच के साथ लक्ष्य का पीछा करना d2aae-1510168915-800 सीमित ओवरों के क्रिकेट में अपने धमाकेदार कारनामों के चलते 'मास्टर चेज़र' का टैग विराट कोहली ने अर्जित किया।इससे पहले युवराज और एमएस धोनी ही वो दो मुख्य किरदार रहे जिन्होंने भारत को बार बार आसानी से लक्ष्य का पीछा कर जीत हासिल करायी। दोनों बल्लेबाजों ने 2000 के दशक में अपनी धमाकेदार आक्रमक बल्लेबाज़ी और सकारात्मक सोच के साथ भारत को नाज़ुक परिस्थितियों से बाहर निकाल कर जीत दिलायी। धोनी ने जहाँ एक और अपने ताकतवर शॉटों से गेंद को बार-बार सीमा के पार पहुँचाया, तो युवराज ने अपनी टाइमिंग से भारत को लक्ष्य का पीछा करते हुए लगातार 17 बार जीत दिलायी। हालाँकि इसमें अन्य योगदान देने वाले भी रहे लेकिन ये दोनों बल्लेबाज उन जीतों के प्रमुख किरदार थे। जब दबाव का समय होता था तो उसमे युवराज ने धैर्य के साथ गेंदों का सामना किया, युवराज की सराहनीय तकनीक ने निरंतर उन्हें खेल के मैदान में रनों का पीछा कर टीम को जीत दिलाने में मदद की। यह एक बड़ा सबक भी है कि कैसे, एक सकारात्मक मानसिकता को अपना कर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मुश्किल दिखने वाले लक्ष्य भी प्राप्त किये जा सकते हैं। # 3. स्वयं को प्रेरित करने वाले स्वभाव का विकास करना a49f3-1510169458-800 स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ओवर में 6 छक्कों की युवराज की लाज़वाब पारी विश्व टी -20 के छोटे से इतिहास की कभी न भुला पाने वाली परियों में से एक और क्रिकेट के अविस्मरणीय क्षणों में से एक है। भले ही एंड्रयू फ्लिंटॉफ आज भी युवराज को अपनी बातों से उकसाने की कोशिश करने के लिये खुद को कोसते होंगे , लेकिन इस पारी के पीछे कहीं न कहीं इंग्लैंड के तेज़ गेंदबाज़ी ऑलराउंडर दिमित्री मस्कारेंहस की ओवल में एक वनडे में अंतिम पांच गेंदों पर युवराज की गेंदों पर पांच लंबे छक्के लगाना रहा। वास्तव में 15 दिन बाद, इस पारी के साथ भारतीय स्टार ने डरबन में ब्रॉड की उन गेंदों पर वो लंबे छक्के लगा पूरी इंग्लैंड टीम से बदला लिया। हालांकि मस्कारेंहस की वो पारी उस मैच में भारत को रोमांचकारी जीत हासिल करने से रोक नहीं सकी, लेकिन युवराज शायद उस ओवर के आघात से उबर नहीं पाए थे। जिस तरह से यह घटनाक्रम मैदान में घटा वह युवराज के अन्दर के प्रेणनादायी स्वभाव के बारे में बताता है। जीवन के प्रति इस तरह के दृष्टिकोण का विकास करना, दुःख की पीड़ा के साथ एक व्यक्तिगत समझौता न कर खुद को प्रेरित करना एक बड़ी सीख है। # 2. दर्द पर काबू पाते हुए सफलता पाना 40622-1510169190-800 2011 में वानखेड़े स्टेडियम में मौजूद जनता प्रसन्नता से झूम रही थी तो वही इस जीत के सभी नायक बीच मैदान पर अपनी भावनायें रोक पाने में सक्षम नही थे। युवराज की आंखों से बह रहे आंसुओं से सबको यही लगा की ये एक खिलाड़ी के लिये सबसे बड़े खिताब को जीतने की ख़ुशी थी। सही कहा जाये तो यदि किसी चित्र से हजार व्यक्त होते है, तो यह उनमें से एक था। 2011 के विश्व कप की जीत के खाफी बाद यह खुलासा हुआ कि वह पूरा टूर्नामेंट एक भारी शारीरिक दर्द के साथ खेले थे। बार-बार खांसने के और सांस लेने में कठिनाइयों का सामना करते हुए, युवराज ने क्रिकेट के मैदान पर अपने देश की अगुवाई करने के लिए इस पीड़ा का सामना किया था। कैसे दर्द से लड़कर सफलता अर्जित की जाती है यह उसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उनके लगातार बेहतरीन प्रदर्शन के लिये युवराज को इस टूर्नामेंट का, 'प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट' सम्मान दिया गया था। उस यादगार फाइनल के गुज़रे छह साल से अधिक का समय बीत चुका है। फिर भी, जीवन की इतनी बड़ी जंग लड़ना और उनका दृढ़ संकल्प सभी को याद है। जब एक विजेता कैसे शारीरिक दर्द को हराता है, और शिखर तक पहुचता है, इससे बहतर सबक शायद ही कहीं मिले। # 1. कभी हार न मानना 00601-1510169272-800

भारतीय क्रिकेट टीम में वापसी करने में कई खिलाड़ी माहिर थे। पुराने दिनों, में मोहिंदर अमरनाथ ऐसे ही खिलाड़ियों में से एक थे। मगर आधुनिक युग में, युवराज के नाम से बड़ा शायद ही कोई दावेदार हो। श्रीलंका की मिट्टी पर 2001 के कोका-कोला कप से राष्ट्रीय टीम में शानदार वापसी करने से इसकी शुरुआत हुई। उसी साल शुरुआत में इंग्लैंड के खिलाफ 3 मैचों की एकदिवसीय श्रृंखला में इस सिलसिले का विस्तार हुआ। तमाम असफलताओं के बाद भी वह बार बार लौटे और मैदान पर उनकी असीम प्रतिभा ही थी जिसके चलते विपक्षी गेंदबाज भी युवराज को अपने लिए सबसे मुश्किल चुनौती मानते थे। 2012 में 'मेडियास्टीयनल सेमिनॉमा' (एक दुर्लभ रोगाणु कोशिका ट्यूमर) का निदान होने के बावजूद, वह घबराये नही और भारत की सीमित-ओवर की टीमों में अपनी जगह को पुनः प्राप्त करने के एकमात्र उद्देश्य से मेहनत करते रहे। उन्होंने न सिर्फ कैंसर रूपी अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई जीती, बल्कि अपने अंदर धैर्य के साथ एक हार न मानने वाली सोच को विकसित किया। हालांकि उनके करियर का दूसरा चरण उनके पिछले समय की तरह सफल नही रहा लेकिन यह तथ्य कि युवराज ने आंखों के सामने खुद को कैंसर से लड़ते देखा और बाद में केवल तीन महीनों में भारतीय टीम में वापस लौटकर आये, उनकी कभी हार न मानने की सोच का एक नजराना बना। जबभी इस दायें हाथ के बल्लेबाज़ की बात होगी, तो सबसे पहले उन्हें 2011 विश्व कप में उनके शानदार प्रदर्शन का श्रेय दिया जाएगा। कुछ लोग तो शायद 2007 विश्व टी 20 में उनके शानदार प्रदर्शन को याद भी करेंगे। हालांकि, भारतीय क्रिकेट में युवराज का सबसे बड़ा योगदान उनका कभी हार न मानने का रवैया रहा है। युवराज का जीवन इस बात की सीख है कि बाधाओं में कैसे हमे खुद आगे को बढ़ाना है। वह "यू वी कैन फाउंडेशन" के साथ जरुरतमंदों की मदद कर एक प्रतीक भी बनते जा रहे हैं।