भारतीय क्रिकेट टीम में वापसी करने में कई खिलाड़ी माहिर थे। पुराने दिनों, में मोहिंदर अमरनाथ ऐसे ही खिलाड़ियों में से एक थे। मगर आधुनिक युग में, युवराज के नाम से बड़ा शायद ही कोई दावेदार हो। श्रीलंका की मिट्टी पर 2001 के कोका-कोला कप से राष्ट्रीय टीम में शानदार वापसी करने से इसकी शुरुआत हुई। उसी साल शुरुआत में इंग्लैंड के खिलाफ 3 मैचों की एकदिवसीय श्रृंखला में इस सिलसिले का विस्तार हुआ।
तमाम असफलताओं के बाद भी वह बार बार लौटे और मैदान पर उनकी असीम प्रतिभा ही थी जिसके चलते विपक्षी गेंदबाज भी युवराज को अपने लिए सबसे मुश्किल चुनौती मानते थे। 2012 में 'मेडियास्टीयनल सेमिनॉमा' (एक दुर्लभ रोगाणु कोशिका ट्यूमर) का निदान होने के बावजूद, वह घबराये नही और भारत की सीमित-ओवर की टीमों में अपनी जगह को पुनः प्राप्त करने के एकमात्र उद्देश्य से मेहनत करते रहे। उन्होंने न सिर्फ कैंसर रूपी अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई जीती, बल्कि अपने अंदर धैर्य के साथ एक हार न मानने वाली सोच को विकसित किया।
हालांकि उनके करियर का दूसरा चरण उनके पिछले समय की तरह सफल नही रहा लेकिन यह तथ्य कि युवराज ने आंखों के सामने खुद को कैंसर से लड़ते देखा और बाद में केवल तीन महीनों में भारतीय टीम में वापस लौटकर आये, उनकी कभी हार न मानने की सोच का एक नजराना बना। जबभी इस दायें हाथ के बल्लेबाज़ की बात होगी, तो सबसे पहले उन्हें 2011 विश्व कप में उनके शानदार प्रदर्शन का श्रेय दिया जाएगा। कुछ लोग तो शायद 2007 विश्व टी 20 में उनके शानदार प्रदर्शन को याद भी करेंगे। हालांकि, भारतीय क्रिकेट में युवराज का सबसे बड़ा योगदान उनका कभी हार न मानने का रवैया रहा है। युवराज का जीवन इस बात की सीख है कि बाधाओं में कैसे हमे खुद आगे को बढ़ाना है। वह "यू वी कैन फाउंडेशन" के साथ जरुरतमंदों की मदद कर एक प्रतीक भी बनते जा रहे हैं।
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Edited by Staff Editor