फिल्म में अजहर को बुकी से खराब खेलने के लिए एक करोड़ रुपये लेते हुए दिखाया जाता है। लेकिन अजहर बेहतरीन खेल दिखाकर उसे उसका पैसा वापस कर देते हैं।
ऐसे में ये सीन अजहरुद्दीन के लिए आत्मघाती साबित हुआ है। आईसीसी का नियम है कि यदि आप खराब खेलने के लिए पैसे लेते हैं। और इसे जुर्म को कबूल करते हैं। तो इसके लिए भी आपको बैन झेलना पड़ सकता है।
#7 अजहर की कहानी में दो मुख्य बुकी का नाम ही नहीं है
सीबीआई की रिपोर्ट में अजहर मैच को फिक्स करने और दो बुकी एमके और अजय/ज्ञान गुप्ता से पैसा लेने की बात कबूल कर चुके हैं। जिन्हें वह अजय शर्मा से मिलवाते भी हैं। ये सारी बाते वह सीबीआई के सामने कबूल कर लेते हैं।
अजय गुप्ता/ ज्ञान गुप्ता ने 1999 वर्ल्डकप में अजहरुद्दीन के शौपिंग का खर्च भी उठाते हैं। लेकिन इन दोनों का नाम फिल्म में कहीं भी मेंशन नहीं है।
#8 क्रोनिये का कहीं भी संबोधन नहीं
इस पूरी फिल्म में कहीं भी दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैन्सी क्रोनिये का जिक्र ही नहीं है। जबकि कोर्निये ने किंग्स कमीशन में अपने वक्तव्य में कहा था कि अजहरुद्दीन ने उन्हें बुकी एमके से मिलवाया था। अब ये बताइए इस पूरी घटना में क्रोनिये ने सिर्फ अजहर का ही नाम क्यों लिया? या फिर क्रोनिये दुनिया के सामने बहुत बड़ा झूठ बोल गये। जिसे पचा पाना मुश्किल है।
#9 खुद के खिलाफ बोलने वाले खिलाड़ियों की खिल्ली उड़ाई
फिल्म में अजहर के खिलाफ बोलने वाले उन सभी साथी खिलाड़ियों की खुली उड़ाई गयी है।
मनोज प्रभाकर को फिल्म में विलेन के तौर पर पेश किया गया है। रवि शास्त्री को रंगीन मिजाज का दिखाया गया है। अजय शर्मा क्रिकेटरों और बुकीज के बीच मध्यस्थ रहे। वहीं विनोद काम्बली को एक अयोग्य बल्लेबाज़ के तौर पर दिखाया गया है, जिनसे बुकी सम्पर्क ही नहीं करना चाहते हैं।
पूरी फिल्म में अजहरुद्दीन को पाक-साफ़ दिखाने के लिए उनके अन्य साथी खिलाड़ियों, सीबीआई और बीसीसीआई का उपहास किया गया है।
#10 कई छोटी गलतियां और कमियां
फिल्म में कई अन्य कालानुक्रमिक और तथ्यात्मक गलतियां हैं। उदाहरण के तौर पर टाइटन कप के रूप में जुबली कप और अजहरुद्दीन को कप्तान के रूप में दिखाया जाता है। जबकि हकीकत में टाइटन कप और कुख्यात राजकोट वनडे में सचिन तेंदुलकर भारतीय टीम के कप्तान थे।
फिल्म में अजहरुद्दीन को दोषमुक्त दिखाने के चक्कर में उनके बेहतरीन क्रिकेट करियर को मानो भुला दिया जाता है। फिल्म को पूरी तरह से काल्पनिक बताने के चक्कर में ऐसा किया जाता है।
फिल्म में इस कहावत को सच साबित किया गया है कि समय पुराने जख्मों को भर देता है। इस फिल्म के जरिये जो लोग अपने बचपन के हीरो को देखने जाते हैं। तो खुद को ठगा हुआ पाते हैं। फिल्म एक बार फिर उन विवादों को हवा देने की तरह लगती है। अगर सच कहूं तो “अज़हर” ने पूरे देश को एक बार फिर ठगा है......एक बार फिर!!!
लेखक-नवनीत मुंधरा, अनुवादक-मनोज तिवारी