साल 2018, टेस्ट में बेस्ट भारतीय क्रिकेट टीम के लिए बेहद अहम माना जा रहा है। फ़ैस से लेकर क्रिकेट पंडितों की नज़र में भी ये वह साल है जो भारत के सिर पर मौजूद टेस्ट के ताज का सही मायनो में फ़ैसला कर सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है टीम इंडिया का विदेशी दौरा जिसमें मौजूदा प्रोटियाज़ सीरीज़ के अलावा इंग्लैंड और साल के अंत में ऑस्ट्रेलिया का दौरा शामिल है। लेकिन कोहली की इस विराट सेना के लिए साल का आग़ाज़ बेहद निराशाजनक अंदाज़ में हुआ, केपटाउन में खेले गए 3 मैचों की सीरीज़ का पहला टेस्ट भारत 72 रनों से हार गया। हालांकि इस टेस्ट में भारतीय पेस बैट्री ने कमाल का प्रदर्शन करते हुए एक ऐसा रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया, जिससे भारतीय फ़ैंस और ख़ास तौर से तेज़ गेंदबाज़ी को पसंद करने वाले बेहद उत्साहित हैं। भारतीय क्रिकेट इतिहास में ये पहला मौक़ा था जब एक टेस्ट मैच में 4 तेज़ गेंदबाज़ों (भुवनेश्वर कुमार, मोहम्मद शमी, जसप्रीत बुमराह और हार्दिक पांड्या) ने दोनों ही पारियों में कम से कम एक विकेट झटके हों, टीम इंडिया की पेस चौकड़ी ने 20 में से 17 विकेट अपने नाम किए। चौथे दिन पहले सत्र में तो भारतीय टीम 65 रनों पर मेज़बान दक्षिण अफ़्रीका के 8 विकेट झटकते हुए इतिहास रचने के क़रीब खड़ी हो गई थी। ऐसा लग रहा था कि 25 सालों में प्रोटियाज़ की धरती पर तीसरी और केपटाउन में पहली जीत विराट कोहली की ये नंबर-1 टीम हासिल कर लेगी। क्योंकि भारतीय गेंदबाज़ों ने अफ़्रीकी टीम को दूसरी पारी में महज़ 130 रनों पर ढेर करते हुए भारतीय बल्लेबाज़ों के सामने 208 रनों का लक्ष्य दे दिया था। भारतीय फ़ैंस अब ख़ुशी से झूम उठे थे, और पूरे भारत में ये चर्चा चलने लगी थी क्या टीम इंडिया चौथे ही दिन मुक़ाबला जीत जाएगी या पांचवें दिन मुक़ाबला जाने की नौबत भी आएगी। शिखर धवन और मुरली विजय ने शुरुआत भी अच्छी दिलाई और बिना किसी नुक़सान के स्कोर बोर्ड पर टीम इंडिया ने 30 रन बना लिए थे। अब लगने लगा था कि सच में हम सिर्फ़ क़ागज़ पर या अपने घरेलू सरज़मीं पर खेलते हुए नंबर-1 नहीं बने हैं, बल्कि घर से बाहर तेज़ और उछाल भरी पिच पर भी हमारे बल्लेबाज़ रनों का अंबार लगाने में माहिर हो गए हैं। लेकिन देखते ही देखते भारतीय प्रशंसकों के चेहरे पर मुस्कान ढलती गई और ग़ुस्सा बढ़ता गया, निराश और हताश खेल प्रेमी और क्रिकेट पंडित अपनी नाराज़गी सोशल मीडिया पर निकाल रहे थे। क्योंकि चौथे दिन के पहले सत्र में अगर भारतीय गेंदबाज़ों ने 8 विकेट झटकते हुए एक सुनहरा मौक़ा दे दिया था, तो दूसरे सत्र में भारतीय बल्लेबाज़ों ने गेंदबाज़ों की मेहनत ज़ाया करते हुए 7 विकेट एक सत्र में प्रोटियाज़ गेंदबाज़ों की झोली में डालकर हिसाब चुकता कर दिया। मैच से अब टीम इंडिया बाहर हो चुकी थी, हालांकि भुवनेश्वर कुमार और आर अश्विन ने कुछ संघर्ष ज़रूर किया लेकिन वे दोनों बस हार के अंतर को ही कम कर रहे थे। आख़िरी सत्र में वर्नर फ़िलैंडर ने 4 गेंदों में 3 विकेट लेते हुए इस संघर्ष को भी ख़त्म कर दिया और मेज़बान टीम को 72 रनों से जीत दिला दी। टीम इंडिया के लिए ये कोई नई बात नहीं थी, विदेशी सरज़मीं पर ये सिलसिला दशकों से भारतीय फ़ैंस देखते हुए बड़े हुए हैं। फिर चाहे 1997 में वेस्टइंडीज़ के दिए महज़ 120 रनों के लक्ष्य का पीछा करते हुए 81 रनों पर ढेर हो जाना या गाले में श्रीलंका के 176 रनों के टारगेट के जवाब में विकेटों का पतझड़ लगा देना। केपटाउन में मिली इस हार ने उन अरमानों पर फिर विराम लगा दिया जिसे सीने में दबाए और जीत के बाद इज़हार करने का इंतज़ार टीम इंडिया के फ़ैन्स कर रहे थे। हालांकि अभी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है, सेंचुरियन टेस्ट में जीत से वापसी एक बार फिर उन अरमानों को परवान चढ़ा सकती है। पर क्या ये मुमकिन है ? क्या टीम इंडिया केपटाउन में मिली हार से सबक़ लेते हुए सेंचुरियन में वापसी कर पाएगी ? इन सवालों का जवाब 'हां' में शायद ही कोई भारतीय फ़ैंस या क्रिकेट पंडित आत्मविश्वास के साथ दे पाएं। क्योंकि उससे बड़ा सवाल तो उन्हें ख़ुद परेशान कर रहा है कि क्या 25 सालों में रैंकिंग के अलावा टीम इंडिया में कुछ बदलाव आया भी है या नहीं ? और ये सवाल लाज़िमी भी है, केपटाउन टेस्ट से पहले पिछले 3 सालों में हमने सिर्फ़ 3 टेस्ट हारे थे, इन सालों में हमने कैरेबियाई दौरे को छोड़ दिया जाए तो सभी मुक़ाबले भारतीय उपमहाद्वीप में ही खेले हैं। जहां भारतीय शेर शानदार प्रदर्शन करते हुए टेस्ट रैंकिंग में नंबर-1 पर काबिज़ हैं और वह भी इतने बड़े अंतर से कि प्रोटियाज़ के ख़िलाफ़ ये सीरीज़ हार भी भारत से आईसीसी टेस्ट रैंकिंग की नंबर-1 कुर्सी नहीं छिन पाएगी। पर मेरी नज़र में ये सिर्फ़ एक आंकड़ों का खेल होगा और काग़ज़ तक ही कोहली की सेना विराट रहेगी, क्योंकि असली इम्तिहान तो भारत का विदेशी सरज़मीं पर है। विदेशों में भी हार का सिलसिला अगर थमने का नाम नहीं लेता तो फिर इस टीम को 'टेस्ट में बेस्ट' नहीं बल्कि घर के शेर ही कहना ज़्यादा मुनासिब होगा। यानी इन 25 या 50 सालों में कप्तानों और रैंकिंग के अलावा कुछ नहीं बदला।