क्रिकेट में हर बैट का होता है अलग वजन

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क्रिकेट के बैट का आदर्श भर एवं इसका विकासक्रम क्या क्रिकेट के बैट का वजन महत्वपूर्ण है? खैर, कुछ लोग कह रहे हैं कि यह सभी व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है और इस तरह के खेल को बल्ले और गेंद के बीच में कोई फर्क नहीं करना चाहिए। अगर तथ्यों पर विचार किया जाए, तो क्रिकेट बल्ले का वजन एक बल्लेबाज के प्रदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि, क्रिकेट बल्ले का उत्पादन करते समय कुछ नियमों का पालन किया जाता है। क्रिकेट के बैट के लिए नियम 'क्रिकेट के कानून' के अनुसार, बल्ले की लंबाई 965 मिमी से अधिक और चौड़ाई 108 मिमी नहीं होनी चाहिए। क्रिकेट के बल्ले का मानक वजन 1.2 किग्रा से 1.4 किलो वजन का होता है। इन नियमों को 1771 में 'मॉन्स्टर बल्ले की घटना' के बाद पेश किया गया था। क्रेटेय और हैम्बलेडन के बीच एक मैच के दौरान जिस बल्ले का इस्तेमाल किया गया था वह विकेट के समान था। इस बल्ले का इस्तेमाल थॉमस व्हाइट ने किया था और बाद में हैम्बलेडन द्वारा इसका विरोध किया गया था। विवाद के बाद 1774 में यह निर्णय लिया गया कि बल्ले की अधिकतम चौड़ाई चार और एक चौथाई इंच से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह निर्णय आज भी बरकरार है। वजन विस्थापन विभिन्न कंपनियों ने वर्षों से क्रिकेट बैट्स का निर्माण किया है और इसे खेल के नियमों के अनुसार बनाया है। 1960 के दशक में, स्लेजेंजर ने एक बैट बनाया जिसका नाम दिया गया ‘ए क्रिकेट बैट विथ नो शोल्डर्स’। इसकी विशेषता यह थी कि पहले से यह बैट हल्का हो गया और इसका वजन बल्ले के स्वीट स्पॉट (बैट के निचले हिस्से से ऊपर मध्य का भाग) पर स्थानांतरित हो गया। इससे फ़ायदा ये हुआ कि बैट का वजन हल्का हो गया और स्वीट स्पॉट में ताकत आने से शॉट खेलने में आसानी हुई। न्यूजीलैंड के पूर्व ऑलराउंडर लांस केर्न्स ने 1980 के दशक में इस तरह के बल्ले का इस्तेमाल किया और एक ओवर में 6 छक्के लगाकर इस बल्ले को लोगों के ध्यानाकर्षण में लाया। 1970 के दशक में, जीएन100 नाम के बल्ले को जारी किया गया था जो बैट के पीछे के केंद्र से लकड़ी को हटाने पर केंद्रित था। इसमें बल्ले को हल्का बनाया गया एवं बल्ले के स्वीट स्पॉट में भी सुधार किया गया। इसमें ख़ासियत यह थी कि पुछल्ले भी इस बल्ले के साथ स्ट्रोक खेल सकते थे, क्योंकि इसमें एक हल्का पिकअप था। खिलाड़ियों ने भी बेहतर परिणाम के लिए कानून के मुताबिक तय वजन के भीतर एक अलग सामग्री का उपयोग करने की कोशिश की है। 1979 में, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर डेनिस लिली ने एक एल्यूमीनियम बैट का इस्तेमाल किया, जिसे बाद में खिलाड़ियों के विरोध का शिकार होना पड़ा, खिलाडियों ने दावा किया था कि एल्यूमीनियम बल्ले ने क्रिकेट गेंद को क्षति पहुंचाई। अंत में सारे दावे गलत साबित हुए, लेकिन नियमों को तब तक बदल दिया गया था और नए नियमों के मुताबिक बैट को केवल लकड़ी द्वारा ही बनाया जाना था। मंगूज बैट बैट का तब बहुत ही प्रचार हुआ जब इंडियन प्रीमियर लीग के दौरान मैथ्यू हेडन द्वारा पहली बार खेल में लाया गया था। यह बल्ला परंपरागत क्रिकेट बल्ले से 33% कम था इसका उद्देश्य क्रिकेट के बल्ले के अवांछित भाग को कम करना था और बैट के केंद्र को मोटा करना था, जो कम शक्ति के साथ बड़े शॉट्स को मारने के लिए जरूरी था और इसका मतलब केवल शॉट पर हमला करना था। हैडन को नए बल्ले से उतरने के दौरान संघर्ष करना पड़ा लेकिन बाद में टूर्नामेंट में उन्हें जल्दी ही 93 रनों का स्कोर मिला। दूसरे ध्यान देने योग्य खिलाड़ी जिन्होंने मंगूज बैट के साथ शतक जड़ा था, वह गैरेथ एंड्रयू थे, जो 2010 में वुर्स्टरशायर में खेले। कश्मीरी विलो बैट kashmir-willow-bat 1920 के दशक में जब ब्रिटिशों ने भारत पर शासन किया तब इन बल्लों का उत्पादन शुरू हुआ। इन बल्लों को लगातार 6 घंटे तक खटखटाने की आवश्यकता होती है, जिससे किनारों का आकार ठीक हो जाता है। बाद में इसे सामने, पीठ, पैर की अंगुली और किनारों पर तेल लगाने के साथ ही इसे और अधिक टिकाऊ बना दिया जाता है। इतिहास ने हमें सिखाया है कि क्रिकेट के बैट का वजन और ऊंचाई खेल में एक प्रमुख भूमिका निभाता है और नवाचार इस खेल को अधिक मनोरंजक करने के लिए प्रयासरत हैं। लेखक: रोहन तलरेजा अनुवादक: मोहन कुमार

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