क्रिकेट का खेल समय के साथ साथ लगातार बदलता रहा है, और ये बदलाव निरंतरता के साथ जारी रहता है। आधुनिक दौर में क्रिकेट के बल्लों से लेकर गेंद और पिच तक में भारी फेरबदल हुए हैं। हर एक क्रिकेट टीम भी अपने अंतिम-11 खिलाड़ियों के चयन के वक़्त इस बात पर ज़ोर देती है कि ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे क्रिकेटर को शामिल किया जाए जो किसी एक चीज़ में भले ही विशेषज्ञ हों लेकिन वह खेल के दूसरे विभाग में भी दक्ष हों। जिन्हें हम ऑलराउंडर कहते हैं। ऑलराउंडर भी कई तरह के हो सकते हैं, ये नाम सुनते ही सबसे पहला ख़्याल आता है ऐसे खिलाड़ी जो गेंद और बल्ले दोनों से अच्छा प्रदर्शन कर सकते हों। लेकिन हरफ़नमौला सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं, जैसे कि इस शब्द में ही छिपा है ‘हर+फ़न+मौला’ यानी हर काम कर सकने वाला। कुछ विकेटकीपर को भी ऑलराउंडर की श्रेणी में रखा जाता है, और ये बदलाव भी आधुनिक दौर की ही देन है। पहले के दौर या यूं कहें कि 90 के दशक तक विकेटकीपर एक विशेषज्ञ का काम होता था, जो विकेट के पीछे रहकर ये सुनिश्चित करता था कि उससे कोई गेंद न छूटे और न ही कोई कैच। वह बल्ले से क्या कर सकता है और कितने रन बना सकता है, ये ज़्यादा मायने नहीं रखते थे क्योंकि वह काम तो बल्लेबाज़ों और कुछ एक गेंदबाज़ ऑलराउंडर तक ही सीमित था। पर वक़्त के साथ साथ ये दौर बदलता गया। इंग्लैंड में एलेक स्टीवर्ट, ज़िम्बाब्वे में एंडी फ़्लॉवर, न्यूज़ीलैंड में एडम परोरे, श्रीलंका में रोमेश कालुविथराना जैसे विकेटकीपर आ चुके थे जो विकेट के पीछे तो कमाल करते ही थे विकेट के सामने यानी पिच पर बल्ले से भी धुरंधर थे। 90 का दशक ख़त्म होते होते और 2000 की शुरुआत होने तक तो विकेटकीपर का मतलब और तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी थी। ऑस्ट्रेलिया में एडम गिलक्रिस्ट तो श्रीलंका में कुमार संगकारा का आगमन हो चुका था और भारत में राहुल द्रविड़ के हाथों में विकेटकीपींग दस्ताने दे दिए गए थे। फिर 2004-05 के दौरान भारत में महेंद्र सिंह धोनी और न्यूज़ीलैंड में ब्रेंडन मैकुलम के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एंट्री ने विकेटकीपर की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित कर दिया। अब विकेटकीपर का रोल विकेट के पीछे जितना था उससे कहीं ज़्यादा विकेट के सामने और पिच पर बल्ले के साथ था। गिलक्रिस्ट और धोनी ने अपने अपने देशों को न जाने कितनी हारी हुई बाज़ी अपने बल्ले से जीत में बदल डाली। धोनी तो कई सालों तक आईसीसी वनडे रैंकिंग में नंबर-1 बल्लेबाज़ रहे, आज भी माही वनडे क्रिकेट में टॉप-10 बल्लेबाज़ों में शामिल हैं। धोनी का बल्लेबाज़ी औसत जहां वनडे में 50 से ज़्यादा है तो टेस्ट में 47 की औसत से गिलक्रिस्ट ने भी 17 शतक लगाए। धोनी और गिली की ही देन है कि आज हर एक देश में एक से बढ़कर एक विकेटकीपर हैं जो विकेट के पीछे तो कमाल करते ही हैं साथ ही बल्ले से भी शानदार हैं। जिनमें दक्षिण अफ़्रीका के क्विंटन डी कॉक, इंग्लैंड के जॉनी बेयरस्टो और जोस बटलर, न्यूज़ीलैंड के टॉम लैथम शामिल हैं। लेकिन विडंबना देखिए, धोनी और गिलक्रिस्ट को देखकर ही विकेटकीपरों की भूमिका में जिस तरह क्रांति आई। आज उसी धोनी का भारत और गिलक्रिस्ट का ऑस्ट्रेलिया, टेस्ट टीम में अच्छे विकेटकीपर बल्लेबाज़ों की कमी से जूझ रहा है। सीमित ओवर में तो टीम इंडिया के पास महेंद्र सिंह धोनी आज भी हैं, लेकिन टेस्ट में उनके संन्यास लेने के बाद ये कमी अब तक खल रही है। हालांकि विकेट के पीछे ऋद्धिमान साहा कुछ हद तक धोनी की कमी पूरी करनी की कोशिश करते रहे हैं और हाल ही संपन्न हुए केपटाउन टेस्ट मैच में 10 कैच पकड़ते हुए उस कारनामे को अंजाम दिया जो कभी महेंद्र सिंह धोनी भी नहीं दे सके थे। लेकिन जब बात विकेट के सामने यानी पिच पर बल्ले के साथ प्रदर्शन की आती है तो साहा बेहद निराश करते हैं। टेस्ट क्रिकेट में साहा ने अब तक खेले 32 मैचों की 46 पारियों में 30 की औसत से 1164 रन बनाए हैं, जिसमें सिर्फ़ 3 शतक शामिल हैं। जिनमें से 2 भारत में और एक वेस्टइंडीज़ में आया है। भारतीय उपमहाद्वीप और वेस्टइंडीज़ को छोड़ दें तो साहा के बल्ले से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 35 रन रहा है जो उन्होंने 2012 में एडिलेड टेस्ट में बनाए थे। हालांकि ये आंकड़ें उतने ज़्यादा निराश भी नहीं करते जितना उनका बल्ला अहम मौक़ों पर करता है। यही वजह है कि साहा पर टीम मैनेजमेंट को भरोसा तो है लेकिन एक विकेटकीपर के तौर पर न कि उनकी बल्लेबाज़ी पर। हैरत इस बात पर होती है कि इन आंकड़ों और प्रदर्शनों के बावजूद टीम मैनेजमेंट ऋद्धिमान साहा को नंबर-1 कीपर मानते हुए लगातार उन्हें मौक़े पर मौक़े देती रहती है। ऐसा नहीं है कि साहा का विकल्प भारत के पास नहीं, घरेलू क्रिकेट में दिनेश कार्तिक और पार्थिव पटेल ने निरंतरता के साथ रनों की बारिश की है पर चयनकर्ताओं पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। कार्तिक और पटेल के अलावा भी भारत में कई शानदार और युवा विकेटकीपरों से भरमार है, जिसमें दिल्ली के ऋषभ पंत और केरल के संजू सैमसन सबसे उपर हैं। हालांकि पंत के लिए रणजी का ये सीज़न व्यक्तिगत तौर पर निराशाजनक रहा है, जहां उनकी कप्तानी में दिल्ली फ़ाइनल में ज़रूर पहुंची थी पर पंत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इसका ख़ामियाज़ा उन्हें दिल्ली की कप्तानी छिन जाने के तौर पर चुकाना पड़ा। पंत के अलावा दिनेश कार्तिक, पार्थिव पटेल और संजू सैमसन बतौर बल्लेबाज़ ऋद्धिमान साहा से कहीं बेहतर हैं। पटेल तो इस वक़्त दक्षिण अफ़्रीका गई टीम के साथ भी हैं, लेकिन उम्मीद कम ही है कि साहा की जगह उन्हें प्लेइंग-XI में मौक़ा मिलेगा। और यही बात क्रिकेट फ़ैन्स और क्रिकेट पंडितों को हैरान करती है और उनके ज़ेहन में एक ही सवाल घूमता रहता है कि आख़िर साहा टीम की ज़रूरत हैं या मजबूरी ?