सौरव गांगुली ने संन्यास की वजह से हटाया पर्दा, साथ ही सचिन तेंदुलकर के साथ अपने रिश्तों पर भी किया ख़ुलासा

सौरव गांगुली जिस तरह अपने बल्ले से गेंदबाज़ों के होश उड़ा देते थे और कईयों के ग़ुरूर को तोड़ने के लिए जाने जाते थे ठीक उसी तरह उन्होंने अपनी आत्मकथा ''A Century Is Not Enough'' में भी कई धमाकेदार राज़ पर से पर्दा हटा रहे हैं। अभी अभी लॉन्च हुई इस किताब को पढ़ना जारी है लेकिन शुरुआती कुछ पन्नों को पढ़कर ही ऐसा लगा कि ये किताब का पॉवरप्ले है जहां कई राज़ दादा ने खोले हैं। पूरी किताब पढ़ने के बाद रिव्यू तो आपके सामने आएगा ही, लेकिन उससे पहले दादा के कुछ अनकहे राज़ आपके सामने रख रहा हूं। 2008 में श्रीलंका दौरे के बाद सौरव गांगुली को टीम से बाहर कर दिया गया था, इरानी ट्रॉफ़ी में रेस्ट ऑफ़ इंडिया में भी जगह नहीं मिली थी। दादा ने अपनी किताब में लिखा है वह परेशान थे और समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ, उस वक़्त कप्तान थे अनिल कुंबले। दादा और कुंबले अच्छे दोस्त भी थे इसलिए उन्होंने बहुत बार सोचा लेकिन फिर कुंबले को फ़ोन घुमाया और पूछा कि ''क्या मैं अब टीम में खेलने के लायक़ नहीं हूँ ?'' इस पर कुंबले बिल्कुल चुप थे और इतना कहा कि ''दादा मुझसे पूछा तक नहीं गया और दिलीप वेंगसरकर (जो उस वक़्त मुख्य चयनकर्ता थे) ने सीधे आपको ड्रॉप किया है, बग़ैर मुझसे पूछे हुए या बात किए हुए।'' इसके बाद दादा ने फिर पूछा कि ''क्या तुम चाहते हो कि मैं टीम के लिए खेलूँ या नहीं ?'' कुंबले ने कहा कि ''मैं चाहता हूँ कि आप अभी खेलते रहें और मैं कोशिश करुंगा कि आपको वापस लाउं।'' इस पर दादा को काफ़ी राहत मिली। दादा को ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ घरेलू सीरीज़ के लिए स्कॉयड में शामिल किया गया लेकिन इस शर्त के साथ कि उन्हें वॉर्म अप मैच में बोर्ड प्रेसिडेंट-XI की ओर से खेलते हुए ख़ुद को साबित करना होगा। दादा को ये बात नाग़वार गुज़री और उन्होंने इसके बाद अनिल कुंबले से भी बात की और कहा कि ये सीरीज़ मेरी आख़िरी होगी, क्योंकि मुझे क्या करना है और कब तक खेलना है इसका फ़ैसला मेरे अलावा और कोई नहीं कर सकता। अनिल कुंबले ने भी उस सीरीज़ में चोट लगने के बाद संन्यास की घोषणा कर दी थी और कप्तानी का दायित्व एम एस धोनी पर आ गया था। उस सीरीज़ में दादा ने शतक भी लगाया और अपने आख़िरी टेस्ट में 85 रनों की लाजवाब पारी भी खेली. उस मैच में धोनी ने दादा को कप्तानी भी थी जिसका ज़िक्र करते हुए दादा ने लिखा है बार बार धोनी की गुज़ारिश पर उन्होंने स्वीकार तो कर लिया लेकिन 3 ओवर की कप्तानी में ही उन्हें लग गया कि वह नहीं कर पाएंगे और उन्होंने माही को कहा कि आप ही कीजिए। एक और घटना में भी दादा ने दिलीप वेंगसरकर, संजय मांजरेकर और सचिन तेंदुलकर के उनके प्रति रवैये को दर्शाया है। 1991 में जब पहली बार दादा को टीम इंडिया में खेलने का मौक़ा मिला था तो उन्होंने दिलीप वेंगसरकर के साथ रूम साझा किया था। तब वेंगसरकर ने उन्हें यहां तक कहा था कि वह टीम इंडिया में आने के योग्य नहीं थे बल्कि उनकी जगह दिल्ली के एक युवा बल्लेबाज़ को आना चाहिए था। दादा मानते हैं कि किसी युवा को इस तरह की बातें करना उसके मनोबल पर नकारात्मक असर करता है। कुछ यही हाल संयज मांजरेकर ने भी किया था, मांजरेकर ने दादा को बहुत खरी खोटी सुनाते हुए कहा था तुम्हारा एटिट्यूड बहुत ख़राब है। दादा ने उन बातों पर से भी पर्दा हटाया जिसमें कहा जाता रहा है कि दादा को पानी की बोतल लेकर मैदान में न जाने के लिए 4 साल के प्रतिबंधित कर दिया गया था। गांगुली लिखते हैं कि मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि ये बातें कहां से आईं, दरअसल हुआ ये था कि मैं ड्रेसिंग रूम में टीवी पर रिची बेनॉ और बिल लॉवरी की कॉमेंट्री सुनने में मशग़ूल था और कपिल पा जी कब आउट हुए उन्हें समझ में ही नहीं आया, उन्हें लगा कि वह टीवी पर पुराने मैच का रिप्ले देख रहे हैं। विकेट गिरने पर रिज़र्व प्लेयर को पानी बोतल लेकर जाना होता है, तभी उस वक़्त के टीम मैनेजर आसिफ़ अली बेग दौड़े हुए आए और चिल्लाते हुए पानी के लिए कहा था। सच यही है कि मैंने कभी पानी ले जाने के लिए इंकार नहीं किया था बल्कि कॉमेंट्री सुनने और टीवी देखने में मशग़ूल था। फिर जब 4 सालों बाद इंग्लैंड दौरे के लिए 1996 में टीम में दादा की वापसी हुई और लॉर्ड्स में उन्हें खेलने का मौक़ा मिला तो टी ब्रेक में जब दादा अपने बल्ले का ग्रीप का ठीक कर रहे थे। तब सचिन तेंदुलकर उनके पास आए और कहा कि तुम चाय पीयो, इसे मुझे दो मैं ठीक करता हूं और सचिन ने दादा की ग्रीप ठीक की और कहा कि पूरा ध्यान बल्लेबाज़ी पर लगाओ और बेफ़िक्र रहो। दादा मानते हैं कि अगर इस तरह किसी युवा को प्रोत्साहन दिया जाता है तो वह ज़रूर अच्छा खेलता है। और शायद यही फ़र्क़ है संजय मांजरेकर, दिलीप वेंगसरकर या दूसरों में जो ख़ुद को बड़ा समझ बैठते हैं और ये भूल जाते हैं कि कभी वह भी वहीं से होकर गुज़रे थे। इज़्ज़त ख़ुद ब ख़ुद आती है, इसे ख़रीदा या ज़बर्दस्ती हासिल नहीं किया जाता।