विकेटकीपर तैयार करने में लचीला रवैया क्यों अपनाता है भारत

इंग्लैंड के खिलाफ एक अगस्त से शुरू होने वाले टेस्ट सीरीज के पहले तीन मैचों के लिए भारतीय टीम में दो विकेटकीपर बल्लेबाजों का चयन हुआ है। एक जो विकेटकीपिंग के उस्तादों में शुमार महेंद्र सिंह धोनी के कारण टीम से बाहर हो गया। दूसरा जिसे धोनी का उत्तराधिकारी माना जा रहा है। जी हां बात हो रही है 33 साल के दिनेश कार्तिक और 20 साल के रिषभ पंत की। दोनों ने विकेटकीपर के तौर पर मजबूत दावेदारी पेश की है और ऋद्धिमान साहा के न होने की स्थिति में टेस्ट टीम के लिए भी मुफीद मान लिए गए। अब इन दोनों के बीच अंतिम एकादश में कौन जगह बना पाता है यह तो बाद में तय होगा लेकिन इन दोनों खिलाड़ियों के उम्र में फ्रक ने साफ जाहिर कर दिया कि धोनी के बाद टीम प्रबंधन एक अदद विकेटकीपर तलाशने में नाकाम रहा है। दरअसल, कोई 10-12 साल पहले महेंद्र सिंह धोनी ने कार्तिक के बदले टीम में जगह बनाई थी। उनका प्रदर्शन कुछ ऐसा रहा कि कार्तिक कभी वापसी ही नहीं कर पाए। दूसरी तरफ भारत को जिस अदद विकेटकीपर की तलाश थी वह पूरी हो चुकी थी। धोनी ने अपने खेल से चयनकर्ताओं को किसी अन्य विकल्प पर विचार के लायक ही नहीं छोड़ा। इसका नतिजा हुआ कि जब महेंद्र सिंह धोनी ने एक दिवसीय क्रिकेट से संन्यास की घोषणा की तो टीम प्रबंधन को विकेट के पीछे खड़े होने वाले एक मजबूत कंधे की दरकार महसूस होने लगी। तब दौर शुरू हुआ ट्रायल एंड डंप मेथड को अपनाने का। इस समय अंतराल में कई खिलाड़ियों को मौके दिए गए लेकिन धोनी का विकल्प बन सके, ऐसा प्रदर्शन कोई नहीं कर पाया। 2001 से अभी तक अगर धोनी को भूल जाएं तो लगभग सात विकेटकीपरों को भारतीय टीम में जगह दी गई लेकिन कोई भी स्थाई तौर पर टीम से नहीं जुड़ पाया। दीप दासगुप्ता से जारी तलाश अजय रात्रा और पार्थिव पटेल से होते हुए 2004 में धोनी पर समाप्त हुई। इसके बाद भी नमन ओझा, ऋद्धिमान साहा, रोबिन उथप्पा और लोकेश राहुल को मौके दिए गए। इनमें से किसी ने बल्लेबाजी नहीं की तो कोई विकेट के पीछे सुस्त नजर आया। इनके करिअर और प्रदर्शन का आंकलन इससे ही करें कि ये सभी मिलकर भी धोनी के बराबर कैच या स्टंप नहीं कर पाए हैं। परिणाम यह हुआ कि अभी भी टीम के पास बेंच पर कोई मजबूत विकेटकीपर नहीं था। हालांकि यह समस्या कोई एक दशक की नहीं थी। सालों से हम पार्ट टाइम विकेटकीपर से ही काम चला रहे थे। 2007 से पहले वाली भारतीय टीम को शायद इसी कारण कई मैचों में या तो विकेटकीपर की कमी खलती या मध्यक्रम में बल्लेबाज की। टीम मैनेजमेंट ने कभी इस समस्या पर गंभीरता से विचार नहीं किया। शायद वे पार्ट टाइम विकेटकीपर के आदि हो गए थे। हालांकि 2004 के बाद स्थिति सुधरी और धोनी ने टीम को मजबूती दी। इसका नतिजा रहा कि भारत को जिस कमजोर बल्लेबाजी लाइनअप के लिए कई मैचों में मुह की खानी पड़ी थी, उसने दिग्गज टीमों को धूल चटाना शुरू कर दिया। लगातार मिल रही सफलता से अभिभूत टीम प्रबंधन एक नया और ताकतवर विकेटकीपर तैयार करना भूल गया। राज्य स्तरीय टीमों में जो युवा विकेटकीपर के तौर पर भारतीय टीम में आने का सपना देख रहे थे, उन पर चयनकर्ताओं की निगाहें गई ही नहीं। जब कभी जरूरत पड़ी तो पार्थिव पटेल से काम चलाने लगे। धोनी के बाद उनकी विरासत को संभालने वालों की कमी के पीछे यह एक बड़ा कारण बना। प्रबंधन जब तक जागा, देर हो चुकी थी। हालांकि भारत में प्रतिभाओं की कभी कमी नहीं रही है और जल्द ही टीम चयनकर्ताओं ने एक युवा और बेहतरीन विकटेकीपर ढूंढ निकाला। उन्हें इंडियन प्रीमियर लीग में एक युवा धुआंधार बल्लेबाजी और विकेट के पीछे तेजी से कैच लपकता नजर आया। उम्र महज 18-19 साल। चयनकर्ताओं की निगाहें उस पर टिक गईं। वे पंत ही थे। अपनी बल्लेबाजी की बदौलत उन्होंने पहले टी-20, इसके बाद एक दिवसीय और अब टेस्ट टीम में जगह बनाई। दूसरी तरफ दिनेश कार्तिक भी घरेलू मैचों में उम्दा प्रदर्शन कर रहे थे। उन्होंने अपनी बल्लेबाजी बदली और विकेट के पीछे तेजी भी दिखाई। इससे उन्हें बेंच के लिए दो मजबूत साथी मिल गए। हालांकि इससे भी प्रबंधन सबक नहीं ले पाया। अब सवाल यही है कि आखिर विकेट के पीछे कंधे की तलाश जेनरेशन गैप के साथ क्यों समाप्त हुई। एक तरफ 33 साल के कार्तिक तो दूसरी तरफ 20 साल के पंत। दोनों ही भारतीय टीम में मध्य क्रम को मजबूत और तेजी देने के लिहाज से टीम में शामिल किए गए, लेकिन यह कितने दिन तक चलेगा। कार्तिक मुश्किल से तीन साल और खेल सकते हैं। इसके बाद भारतीय टीम के पास पंत का साथ देने वाला कौन होगा। विकेटकीपर को तलाशने के प्रति टीम प्रबंधन की उदासिनता ने इतनी बड़ी खाई बनाई है जिसे कम कर पाना खुद में चुनौती है। आगामी टेस्ट में इन दोनों में से जो भी मैदान पर भारत का नेतृत्व करेगा उससे काफी उम्मीदें लगी होंगी। अच्छा तो यही है कि कार्तिक की जगह पंत को अंतिम एकादश में जगह दी जाए और उनकी क्षमता का परिक्षण किया जाए। अब तक के टी-20 मैचों में भले ही पंत ने शानदार बल्लेबाजी की लेकिन लगातार 90 घंटे मैदान पर बिताना ही असल परीक्षा है। टेस्ट के सहारे चयनकर्ता उनकी मानसिक मजबूती को भी परख सकते हैं। और इन सब का फायदा उन्हें एक बेहतरीन विकेटकीपर तैयार कर के मिल सकता है। अब समय आ गया है कि बल्लेबाजी और गेंदबाजी में प्रतिभाओं को तलाशता प्रबंधन विकेटकीपिंग में भी बेंचस्ट्रेंथ मजबूत करे। इससे धोनी के जाने के बाद भी टीम के किसी संकट से नहीं जूझना पड़ेगा।