ऐसा क्यों होता है कि जब भी भारतीय क्रिकेट टीम से आसमान छूने की उम्मीद की जाती है वे धड़ाम से धरती पर पड़े मिलते हैं। अभी कुछ ही दिन तो हुए थे जब इंग्लैंड के खिलाफ उसकी सरजमीं पर टी-20 सीरीज में जीत के साथ उन्होंने अपनी पीठ थपथपाई थी। तब क्रिकेट के दिग्गज भी उनकी कमियों को नजरअंदाज कर, सिर्फ भारत की जीत करने पर ही टिप्पणी कर रहे थे। वे लोग क्यों भारतीय बल्लेबाजों में निरंतरता की कमी पर कुछ भी बोलने से बच रहे थे ? ध्वस्त होते मध्य क्रम पर आखिर टीम मैनेजमेंट और चयनकर्ताओं का ध्यान क्यों नहीं जा रहा ? वे इंग्लैंड दौरे को महज एक विदेशी सरजमीं पर भारत की जीत तक क्यों सीमित करना चाहते हैं ? वे इस सीरीज को विश्व कप की तैयारी की तरह क्यों नहीं खेल रहे ? इन तमाम सवालों के पीछे ही 2019 विश्व कप में भारत की जीत छिपी है। दरअसल, पाठकों को यह लग सकता है कि भारतीय खिलाड़ियों पर टिप्पणी के लिए शायद मैंने जल्दबाजी कर दी लेकिन जब आप इंग्लैंड के खिलाफ चल रहे सीरीज और आने वाले दिनों में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मिलने वाली चुनौती से बाहर निकलें, तो 2019 के मुहाने पर विश्व कप खड़ा मिलेगा। मेरा आंकलन उसी को लेकर है। पहले टी-20 शृंखला में जब भारतीय टीम ने आठ विकेट से जीत दर्ज की तब पूरा देश कुलदीप के पांच विकेट और लोकेश राहुल की शतकीय पारी के जश्न में डूब गया। किसी ने ये सोचने की ज़हमत नहीं ऊठाई कि आखिर इस जीत में हमारा कमज़ोर पक्ष क्या था ? हालांकि इंग्लैंड के कप्तान ने अपनी हार पर संजीदगी से विचार किया और उस शाम प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि हमारी हार का कारण सिर्फ कुलदीप यादव हैं जिनकी गेंदबाजी को बगैर समझे बल्लेबाजों ने सामना किया और वो उनके जाल में फंस गए। दूसरी तरफ भारतीय टीम सिर्फ कुलदीप का पीठ ठोक कर आगे निकल गई। इसका नतीजा हुआ कि अगले टी-20 में उन्हें मात मिली। इस मैच में कुलदीप चार ओवर में एक भी विकेट नहीं ले पाए और पहले बल्लेबाजी करते हुए भारतीय टीम 148 रन पर सरेंडर कर चुकी थी। हार का ठीकरा बल्लेबाजों पर फूटा। हालांकि भारतीय टीम कहां संभलने वाली थी। इस मैच में थोड़ी सी घसियाली पिच ने रोहित शर्मा, शिखर धवन, लोकेश राहुल और महेंद्र सिंह धोनी जैसे दिग्गजों पर लगाम कस दी। अगले मैच में जीत के साथ शृंखला तो भारत ने अपने नाम कर ली लेकिन इंग्लैंड ने इस हार का बखूबी विश्लेषण किया। उसके बल्लेबाजों ने पिच पर समय बिताने के लिए खूब पसीने बहाए। कुलदीप यादव और यजुवेंद्र चहल को खेलने और समझने के लिए बॉलिंग मशीन से जमकर अभ्यास किया। साथ ही उन्होंने यह रणनीति भी बनाई कि जो बल्लेबाज कलाई के इन दो स्पिनरों को बेहतर खेलता है उसे मध्यक्रम में बल्लेबाजी दी जाए। इन सभी प्रयासों से उन्हें तीन मैचों की एक दिवसीय सीरीज के पहले मैच में तो सफलता नहीं मिली लेकिन अगले दोनों मैच जीत कर उन्होंने कोहली सेना को पस्त कर दिया। अब यह समझने की जरूरत है कि आखिर क्या कारण रहे कि भारतीय टीम पानी में जन्में बुलबुले की तरह इंग्लैंड की रणनीति में फंस गई। दरअसल, गौर करें तो भारतीय टीम में खिलाड़ियों का जो संयोजन है, उसमें टीम का सिर, धर और पैर तीनों का तालमेल ही सही नहीं है। मतलब, खिलाड़ियों का एकजुट प्रदर्शन इस टूर पर भारत के लिए चिंता का विषय है। कभी शीर्ष क्रम ही बल्ले से इतन रन उरेल देता है कि मध्य क्रम की गलतियों पर पर्दा डल जाता है और कभी मध्य क्रम में कप्तान विराट कोहली बल्लेबाजों की कमियों को झेप जाते हैं। पहले मैच में राहुल चले, दूसरे में सब फ्लॉप, तीसरे में रोहित ने शतक लगा दी और टीम के हाथ ट्रॉफी लग गई। अब एक दिवसीय में देखें। पहले में कुलदीप यादव की फिरकी और रोहित का शतक, दूसरे में शीर्ष क्रम से लेकर मध्य क्रम तक फेल और तीसरे में शीर्ष साफ और मध्य क्रम में कोहली के अलावा सभी जूझते दिखे। अब जिस भारतीय टीम की बल्लेबाजी को दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाजी क्रम का तमगा मिला हो उसका अगर ये हाल रहा तो वह विश्व कप में क्या होगा? मैं यह बिलकुल नहीं कह रहा कि भारतीय बल्लेबाजों में काबिलियत की कमी है लेकिन निरंतरता का न होना भी तो नाकाबिल ही बनाता है। किसी पर भी जरूरत से ज्यादा भरोसा और जिम्मेदारी या तो टीम को ले डूबती है या फिर उस खिलाड़ी को। यही कारण है कि महेंद्र सिंह धोनी जैसे उम्दा विकेटकीपर बल्लेबाज को भी आलोचकों का सामना करना पड़ रहा है। इस टीम के खिलाड़ी शायद अपनी जिम्मेदारी भूल गए हैं। सुरेश रैना हों या फिर तीसरे मैच में दिनेश कार्तिक, उन्हें यह समझना चाहिए कि किसी भी टीम का मध्य क्रम उसका खेवैया होता है। बीच मज़धार में फंसी टीम को निकालने की जिम्मेदारी मध्य क्रम के कंधों पर ही होती है लेकिन भारतीय टीम का मध्य क्रम तो बिलकुल ही बिखरा नजर आता है। दूसरे एक दिवसीय में भी कमोबेश हाल कुछ ऐसा ही था। 322 रन के लक्ष्य का पीछा करती हुई टीम का मध्य क्रम 104 रन का योगदान दे पाया। शीर्ष क्रम के बल्लेबाजों का भी यही हाल है। कभी तो एक ही बल्लेबाज 100 के पार चला जाता है तो कभी दोनों सलामी बल्लेबाज बेहद लापरवाही से खेलते हुए टीम को हार की आंच में झोंक देते हैं। मिला-जुलाकर टीम की जिम्मेदारी कप्तान विराट कोहली पर आ जाती है जो हर संभव प्रयास करते हैं। कभी टीम बीच समंदर से किनारे तक पहुंच जाती है तो कभी डूब भी जाती है। भारतीय टीम का वर्तामान खेल मुझे हाल ही में हुए चैंपियंस ट्रॉफी की भी याद दिलाती है। पूरी सीरीज में भारतीय टीम ने उम्दा प्रदर्शन किया। लोगों को यह विश्वास हो चला था कि इस बार तो चैंपियंस ट्रॉफी भारत के पास ही आएगी, लेकिन इसी निरंतरता की कमी के कारण उसे हार का सामना करना पड़ा। फाइनल मुकाबले में भारतीय टीम पाकिस्तान के 338 रन के जवाब में महज 158 रन पर सिमट गई थी। उस समय भी रोहित शर्मा 0, शिखर धवन 21, विराट कोहली 5, युवराज सिंह 22, महेंद्र सिंह धोनी 4 और केदार जाधव 9 रन बनाकर पवेलियन लौट गए थे। भारत लगातार इस समस्या से जूझ रहा है। गिनती के महीने ही तो बचे हैं विश्व कप में जब, दुनिया की दिग्गज टीमें इसी इंग्लैंड की धरती पर विश्व विजेता बनने के लिए भिड़ेंगी। ऐसे में सिर्फ एक सीरीज जीत लेने भर की खुशी से ज्यादा अपनी कमजोरियों को ठीक करना ही भारत का लक्ष्य होना चाहिए। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ दिन-रात टेस्ट खेलने से मना कर पहले ही भारतीय टीम सवालों के घेरे में आ चुकी है। किसी कीमत पर जीत हासिल करना उसका लक्ष्य नहीं होना चाहिए। इससे वह आईसीसी रैंकिंग में तो शीर्ष पर पहुंच सकती है लेकिन आईसीसी का विश्व कप नहीं जीत सकती। उसे अपने बल्लेबाजी क्रम में बदलाव करना होगा। उसे अपने खिलाड़ियों को उनकी जिम्मेदारियों से अवगत कराना होगा।