एशियाई खेलों में भारत कुछ स्वर्ण पदकों के साथ शीर्ष दस में जगह बनाकर संतुष्ट नजर आ रहा है। बजरंग पूनिया ने जो स्वर्णिम शुरुआत की उसे नौकायन और शॉटपुट ने जारी रखा है। लेकिन कबड्डी की हार ने इन सभी पीले तमगे की चमक पर पानी फेर दिया। पुरुष और महिला वर्ग में यह ऐसी हार थी जिसे ऐतिहासिक कहा गया। इंडोनेशिया के लिए रवानगी से पहले ही कबड्डी महासंघ को लेकर न्यायालय ने जो फैसला सुनाया था वह किसी झटके से कम नहीं था लेकिन यह माना जा रहा था कि लगभग 28 सालों का बादशाह इस बार भी मात नहीं खाएगा। हालांकि नतिजे इसके विपरीत रहें। देश के लगभग गांवों में बगैर किसी सुविधा के भी जोर-शोर से खेले जाने वाले इस खेल में भारतीय पुरुष और महिला टीम ईरान से हार कर स्वर्ण से चूक गई। इस हार के बाद कबड्डी संघ के अलावा भारत सरकार और उसके नुमाइंदे को अपनी कमी पर विचार करना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस अघोषित राष्ट्रीय खेल का हाल भी हॉकी की तरह हो जाएगा। एशियाई बादशाह की साख पर बट्टा दरअसल, 1990 में कबड्डी को एशियाई खेलों में शामिल किया गया। तब से भारत इस खेल में लगातार सोना जीतता आया था। इंडोनेशिया के लिए कबड्डी टीम के रवाना होने से पहले अखबारों से लेकर टीवी और वेबसाइटों पर कई खेल जानकार यह दावा कर रहे थे कि चाहे किसी खेल में पीला तमगा मिले या नहीं इस खेल में तो शीर्ष पदक पक्का है। इन खेल पंडितों की भविष्यवाणी से उलट सेमी फाइनल में ईरान ने शानदार खेल दिखाते हुए पुरुष टीम को 27-18 से हरा दिया। इस हार को भारत के इस खेल में मिले शोहरत के मुताबिक एकतरफा ही कहा जा सकता है। अगले दिन ही महिला टीम भी ईरान से हार गई। यह खेलों में भारत के बढ़ते बर्चस्व पर सवालिया निशान है। यह खतरे की ऐसी घंटी है जिसे समय रहते नहीं सुना गया तो देश का एक और खेल कब्र में सो जाएगा। संघ में जारी आंतरिक उठा-पटक भी जिम्मेदार इस हार की पटकथा पिछले एशियाई खेलों से ही लिखी जा रही थी। पिछली बार भी फाइनल मुकाबले में ईरान ने भारतीय खिलाड़ियों का डटकर सामना किया। उस जीत में भी भारत 40 फीसदी हार गया था। इस एशियाड तक आते-आते परिणाम प्रत्यक्ष ही हो गया। इस हार से खेल की दुर्दशा की बू आती है। यह इसलिए भी क्योंकि कुछ सालों पहले तक एशिया के गिने-चुने देश ही कबड्डी के बारे में जानते थे और उसे अपनाते थे। यह भारत का पारंपरिक खेल रहा है। इसके बाद भी हम हार गए। इसके पीछे कई कारण हैं। एक तरफ जहां अन्य देश इस खेल को गंभीरता से ले रहे हैं और खिलाड़ियों को तकनीक के सहारे तैयार कर रहे हैं वहीं भारत आज भी पुरानी पद्धति पर विश्वास करता है। दूसरी तरफ कबड्डी महासंघ में जारी धांधली ने भी इसे कमजोर करने में बेजोर भूमिका अदा की है। दूसरे की ताकत को किया नजरअंदाज एक और कारण है जिस पर शायद न तो भारतीय खिलाड़ियों का ध्यान है और न ही कबड्डी के आकाओं का। भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश की टीमें इस खेल में मजबूत दावेदार मानी जाती थीं। लेकिन अब यह खेल ग्लोबल हो गया है और पहले से कहीं ज्यादा पेशेवर। प्रो कबड्डी के जन्मदाता ने जो नहीं सीखा उसे ईरान से कुछ महीनों के लिए भारत आने वाले खिलाड़ियों ने सीख लिया। वह लगातार भारत को चुनौती पेश कर रहा था। बेखबर भारत ही इसे भांप नहीं पाया। वह इसे मिट्टी में बसा खेल मानकर नजरअंदाज करता रहा। वहीं दूसरी तरफ दक्षिण कोरिया भी कबड्डी को गंभीरता से ले रहा है। उसने कोच भी भारत के अश्न कुमार को बनाया है। वहीं अश्न कुमार जो 1990 में एशियाड की स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम के कप्तान थे। उन्होंने इसका परिणाम भी दिया और दक्षिण कोरिया ने लीग मैच में भारत को हराया और सेमी फाइनल में पाकिस्तान को पटखनी दी। 2016 की हार ने दिए थे संकेत हालांकि यह कहा जा सकता है कि कबड्डी में भारत की हार के लक्षण 2016 से ही दिखने लगे थे। विश्व चैंपियनशिप में दक्षिण कोरिया के हाथों भारत की हार को तब महज एक उलटफेर मानकर नजरअंदाज कर दिया गया। इससे सबक लेने के बजाए वह बेफिक्र रहा। वहीं संघ के आपसी झगड़े ने घी का काम किया। एशियाड के पहले टीम चयन को लेकर भी सवाल उठे। यह सब जताता है कि टीम की एशियाई खेलों में हार पहले से ही तय हो गई थी। अगर हम सोना लाने में कामयाब हो भी जाते तो इसे सिर्फ खिलाड़ियों की दिलेरी का ही नतिजा माना जाता। प्रो-कबड्डी लीग से मिली ख्याती के बाद भी इस कबड्डी में मिली हार ने देश को निराश किया।