दंगल फिल्म का डायलॉग 'म्हारी छोरियां छोरो से कम हैं के,' भले ही अब कुछ साल पुराना हो गया हो, लेकिन ये आज टोक्यो ओलंपिक के मैदान पर भारत के लिए साक्षात हो रहा है। भारत निश्चित रूप से एक स्पोर्टिंग नेशन नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे ही सही लोगों की सोच बदल रही है। टोक्यो ओलंपिक में मीराबाई चानू, पीवी सिंधु, लोवलिना बोर्गोहैन ने पदक जीतकर न सिर्फ देश को गौरवान्वित किया है बल्कि खेल में महिलाओं की आशाओं को और मजबूत किया है।
अदिति अशोक ने गोल्फ में शानदार खेल दिखाते हुए सभी गोल्फ प्रेमियों को चौंका दिया तो महिला हॉकी टीम ने भी शानदार प्रदर्शन करते हुए खेलों में बेटियों की भागीदारी की सुदृढ़ता दिखाई है। ओलंपिक खेलों में अभी तक भारतीय महिलाएं एकल स्पर्धाओं में कुल मिलाकर 6 पदक जीत चुकी हैं जिसमें 1 सिल्वर और 4 कांस्य पदक शामिल हैं।
साल 2000 में सिडनी ओलंपिक के दौरान कर्णम मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन यानि वेटलिफ्टिंग में देश को कांस्य पदक के साथ ही उस ओलंपिक का इकलौता मेडल दिलाकर साख बचाई थी। मल्लेश्वरी भारत की ओर से पदक जीतने वाली पहली महिला बनीं थी और इसके साथ ही उन्होंने देश की महिलाओं के लिए नई प्रेरणा जागृत की थी। इसके बाद 12 साल के इंतजार के बाद देश की झोली में लंदन ओलंपिक के माध्यम से महिलाओं ने 2 और पदक दिए। इस बार भी रंग कांसे का ही था लेकिन बॉक्सिंग में मैरीकॉम और बैडमिंटन में साईना नेहवाल ने पदक जीतकर इतिहास रच दिया। इसके बाद 2016 में रियो से कुल 2 मेडल मिले जो जिनमें पीवी सिंधु का सिल्वर और साक्षी मलिक का ब्रॉन्ज था। मीराबाई चानू वेटलिफ्टिंग में सिल्वर जीतने वाली पहली भारतीय बन गईं।
ऐसा नहीं है कि टोक्यो ओलंपिक से पहले महिलाओं का खेलों में वजूद था ही नहीं। भारत की बात करें तो बैडमिंटन में अपर्णा पोपट, साईना, सिंधु, क्रिकेट में झूलन गोस्वामी, अंजुम चोपड़ा, मिताली राज, हरमनप्रीत, वेटलिफ्टिंग में कुंजुरानी देवी, हॉकी में ममता खरब, टेनिस में सानिया मिर्जा, ऐथलेटिक्स में अंजू बॉबी जॉर्ज ऐसे कई नाम हैं जो हमें हमेशा सुनने को मिले और देश की बेटियों को जीतने की प्रेरणा भी मिली लेकिन अब इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है। जब 4 साल बाद होने वाले खेलों के महाकुंभ में देश की बेटियां पोडियम पर खड़ी होकर मेडल पहनती हैं, तो सच मानिए फैंस को बतौर भारतीय तो खुशी होती है, लेकिन एक महिला होने के नाते जो गर्व होता है वो शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
असम के एक छोटे से इलाके गोलाघाट से आने वाली लोवलिना से पहले बॉक्सिंग में 2008 बीजिंग ओलंपिक में विजेंद्र सिंह ने तो 2012 लंदन ओलंपिक में मैरीकॉम ने कांस्य पदक जीता था। एक कॉम्बेट यानि लड़ाई के प्रारूप वाले खेल में जब देश की बेटी का पंच लगता है और वो पदक पक्का करती है तो भारत की हर लड़की को यकीन होता है कि खेल कोई भी हो, वो भी लड़कों की तरह ही उसे खेल सकती है, सीख सकती है। अभी तक देश के लिए 6 ओलंपिक मेडल बेटियों ने जीते हैं और लवलीना का मेडल 7वां होगा। इनमें से 1 मेडल कुश्ती जबकि 2 मेडल बॉक्सिंग जैसे कॉम्बेट स्पोर्ट से जुड़े हैं। यही नहीं, कभी दुनियाभर में गोल्फ भी केवल पुरुषों के योग्य माना जाता था, लेकिन अदिति अशोक ने इस खेल में बेहतरीन प्रदर्शन कर दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए चौथा स्थान हासिल किया। यानि जो खेल कभी सिर्फ पुरुषों के लिए माने जाते थे उनमें आज बेटियां भी अपना दमखम दिखा रही हैं।
महिलाओं की भागीदारी बढ़ी
टोक्यो ओलंपिक को इतिहास में सबसे ज्यादा महिला भागीदारी करवाने वाला ओलंपिक माना जा रहा है और विगत कई वर्षों में आयोजकों ने धीरे-धीरे ही सही, महिलाओं की स्पर्धाएं बढ़ाने का प्रयास किया है। साल 2012 में लंदन ओलंपिक में पहली बार महिला बॉक्सिंग को रखा गया था। इसी तरह टोक्यो में रोइंग में महिलाओं की स्पर्धा जोड़ी गई।
रियो ओलंपिक में जहां कुल प्रतिभागियों में 45 फीसदी महिलाएं थीं, तो वहीं इस बार ये 49 फीसदी है। हमें गर्व देश के बेटों पर भी है जिन्होंने हॉकी, कुश्ती में पदक जीते हैं, लेकिन महिलाओं की बढ़ती भागीदारी एक देश की सामाजिक, आर्थिक स्थिति का भी आईना होती है।ऐसे में भारत के लिए भी अच्छा मौका है कि अपने देश की बेटियों को और मौके दें। अच्छी बात ये है कि मौके मिल भी रहे हैं, क्योंकि बिना समाज, परिवार के सपोर्ट के चानू या लवलीना के लिए इतिहास रचना मुमकिन नहीं होता। बस इन मौकों को और बढ़ाना है ताकि देश का परचम विश्व पटल पर लहरा सके।