टोक्यो ओलंपिक 2020 में वेटलिफ़्टर मीराबाई चानू ने सिल्वर मेडल जीत कर हिंदुस्तान की झोली खु़शियों से भर दी। ओलंपिक से पहले शायद ही कोई उनके बारे में जानता था या जानना चाहता था। लेकिन अब पूरा देश उनके बारे में जानता चाहता है। ऐसा जानना बनता भी है, क्योंकि ओलंपिक जैसे प्रतियोगिता में आपने देश का नाम रौशन किया है।
आपका पता है हमलोगों की दिक्कत क्या है। हम न किसी की ख़ुशियों के हिस्सेदार बनने के लिये तुरंत हाज़िर हो जाते हैं, लेकिन दुख के समय उसे पहचानने तक से इंकार कर देते हैं। हमें कोई मतलब नहीं होता कि कोई खिलाड़ी किन मुश्किलों का सामना करके आगे बढ़ रहा है और एक दिन देश का नाम रौशन कर सकता है। ठीक वैसे ही जैसे हमने मीराबाई चानू के साथ किया।
हम में से बहुत कम लोग इस बात को जानते होंगे कि मीराबाई चानू ने 2018 में वेटलिफ़्टिंग छोड़ने का फ़ैसला ले लिया था, लेकिन क्यों? क्या आप में से किसी ने इस बात को समझने की कोशिश की। ओलंपिक में कामयाबी की इबारत लिखने वाली मीराबाई चानू ने अपने करियर में बहुत सी नाकामियां देखीं। उन्हें हताशा मिली, दुख मिला और आंसू भी निकले। इतने मुश्किल हालातों से गुज़रने वाली मीराबाई की लड़ाई दुनिया से नहीं, बल्कि ख़ुद से थी।
जब मीराबाई को अपनी ताक़त पता चली
मीराबाई इम्फाल के एक ऐसे घर से आती हैं, जिनके पास जीने के लिये तमाम सुविधाएं नहीं थीं। वो पांच भाई-बहन हैं। ग़रीब परिवार में जन्मी मीराबाई को घर में चूल्हा जलाने के लिये अकसर लकड़ियां बिनने के लिये बाहर जाना पड़ता था। वो क़रीब 12 साल की होंगी जब दूर-दूराज से लकड़ी के गठ्ठर को कंधे पर आसानी से उठा कर ले आती थीं। वहीं उनके भाई को गठ्ठर उठाने के लिये काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी। इस दौरान उन्हें अपनी ताकत की पहचान हुई।
किताब के चैप्टर ने पलट दी तकदीर
मीराबाई चानू 8वीं क्लास में होंगी, तभी किताब के एक पेज ने उनकी ज़िंदगी में नया मोड़ ला दिया। दरअसल, पहले वो तीरंदाज बनना चाहती थीं, लेकिन उन्हें ट्रेनिंग नहीं मिली। वो स्कूल से लौट किताब में महान वेटलिफ्टर कुंजरानी देवी की कहानी पढ़ने लगीं। वो कुंजरानी देवी की सफ़लता और संघर्ष से इतना प्रेरित हुईं कि वेटलिफ्टर बनने का निर्णय लिया।
इसके बाद पूर्व इंटरनेशनल वेटलिफ्टर अनीता चानू उनकी कोच बनीं और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया।