ये वाराणासी के एक ऐसे परिवार की कहानी है जिसने भारत को एक नहीं, दो नहीं बल्कि चार-चार बास्केटबॉल खिलाड़ी दिए हैं।
इनमें सबसे बड़ी बहन प्रियंका सिंह (Priyanka Singh) ने अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया है और अपनी छोटी बहनों का करियर संवारने में प्रियंका का बहुत बड़ा योगदान है। पांच में से दो बहन दिव्या सिंह (Divya Singh) और प्रशांति सिंह (Prashanti Singh) ने भारतीय बास्केटबॉल टीम की कप्तानी भी की है। तो वहीं आकांक्षा सिंह (Akanksha Singh) और प्रतिमा सिंह (Pratima Singh) भारतीय टीम का प्रमुख हिस्सा हैं।
रूढ़ीवादी सोच को किया दरकिनार
भारत के सबसे बड़े धार्मिक केंद्रों में से एक से आने वाली सिंह बहनों के लिए सबकुछ आसान नहीं था, वाराणासी जैसे शहर में खेल बहुत मायने नहीं रखते थे, और ऊपर से लड़कियों के लिए तो बिल्कुल नहीं। सिंह बहनों के बैंकर पिता भी चाहते थे कि उनकी बेटियां खेल में नहीं बल्कि पढ़ाई में आगे बढ़ें। लेकिन उनकी मां की सोच कुछ और थी, लोगों और समाज का ताना सुनने के बावजूद उन्होंने अपनी बेटियों को खेल में आगे बढ़ने का हौसला दिया। इन बातों को सिंह बहनों ने आगे चलकर 2011 में एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में साझा किया था।
सिंह बहनों ने अपनी मां का भरोसा नहीं तोड़ा और उन्होंने रूढीवादी सोच और समाज को ग़लत क़रार देते हुए बास्केटबॉल के शिखर तक पहुंची। उन्होंने इसके लिए अपने कॉलेज उदय प्रताप में दी गई सुविधाओं का जमकर फ़ायदा उठाया और ख़ूब मेहनत की। बास्केटबॉल कोर्ट में कई घंटों तक सिंह बहने पसीना बहाया करतीं थीं।
सिंह बहनें धार्मिक शहर में रहने की वजह से जल्दी उठ जाया करतीं थीं, और इसका फ़ायदा ये मिलता था कि वह सुबह से ही इस खेल में अपनी प्रैक्टिस शुरू कर दिया करती थीं। इन सबके बीच वे अपना स्कूल कभी मिस नहीं करती थीं, और हमेशा समय पर जाती थीं। उनकी रोज़ाना की रूटीन ही थी स्कूल जाने से पहले और स्कूल से आने के बाद बास्केटबॉल कोर्ट में पसीना बहाना। सिंह बहनों की यही मेहनत और लगन का नतीजा था कि उन्होंने एक दिन वाराणासी को खेल के लिए भी देश के नक़्शे पर ला दिया था।
एक साथ आगे बढ़ती गईं
कई राज्यस्तरीय और ज़िलास्तरीय टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन करते हुए, एक दिन राष्ट्रीय स्तर पर भी उनका बुलावा आ गया। 2000 वह साल था जब दिव्या सिंह ने देश के लिए डेब्यू किया और इस पल ने सबकुछ बदल दिया। अगले 6 साल के अंदर में दिव्या की तीन और बहनों ने भी देश का प्रतिनिधित्व किया।
दिव्या और प्रशांति ने 2006 कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया था, दिव्या की कप्तानी में भारत ने 6ठा स्थान हासिल किया था। इसके बाद दिव्या ने बास्केटबॉल से संन्यास ले लिया और अब उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी अपनी दो बहनों आकांक्षा और प्रतिमा को दे दी थी।
2010 में हुए एशियन गेम्स के दौरान पांच में से तीन सिंह बहन भारतीय रोस्टर का हिस्सा थीं। हालांकि वह टूर्नामेंट भारत के लिए बेहद निराशाजनक रहा था, क्योंकि टीम इंडिया को एक मैच में भी जीत नहीं मिली थी और भारत ने सबसे निचले पायदान पर ख़त्म किया था।
चार साल बाद इचियोन में हुए एशियन गेम्स में भारत का प्रदर्शन बेहतर रहा था, जब आकांक्षा और प्रशांति ने टीम इंडिया को 6ठा स्थान दिलाया था।
पांच में तीन बहनें अभी भी भारतीय बास्केटबॉल का हिस्सा हैं, और वह लगातार इस खेल और भी लोकप्रिय बनाने के लिए हर संभव प्रयास करती रहती हैं। प्रशांति को 2017 में अर्जुन अवॉर्ड से भी नवाज़ा जा चुका है।
कोर्ट के बाहर भी हैं मिसाल
भारत का नाम बास्केटबॉल कोर्ट से रोशन करने वाली सिंह बहनों ने अब इस खेल को बढ़ाने का ज़िम्मा भी अपने कंधों पर ले लिया है। सिंह बहनें मानती हैं कि बास्केटबॉल में महिलाओं के पास प्रतिभा की कोई कमी नहीं है लेकिन लोगों की सोच और समाज की वजह से ऐसी प्रतिभाएं आगे नहीं आ पाती हैं।
उन्हें लगता है कि उनकी क़ामयाबी ही ऐसी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनेगी, और वे भी एक दिन इनकी तरह ही बास्केटबॉल में देश का नाम रोशन करेंगी। दिव्या सिंह, जो स्पोर्ट्स मैनेजमेंट डिग्री भी हासिल कर चुकी हैं, वह अब इस खेल का कैसे विस्तार किया जाए और इसे आर्थिक तौर पर कैसे मज़बूत बनाया जाए, इस पर लगातार मेहनत कर रही हैं। वहीं आकांक्षा दिल्ली यूनिवर्सिटी के साथ जुड़ी हुईं हैं जहां से वह नई प्रतिभाओं को तराशती हैं ताकि एक दिन वह देश में बास्केटबॉल की चमक बिखेर सकें।
पिछले कुछ समय से जिस तरह से बास्केटबॉल की लोकप्रियता भारत में बढ़ रही है, उसको देखते हुए ये ज़रूर लगता है कि आने वाले समय में सिंह बहनों की ये मेहनत भी रंग लाएगी और देश को बास्केटबॉल के लिए भी जाना जाएगा।