भारत में फुटबॉल हमेशा क्रिकेट की तुलना में पिछड़ा ही गया हैं, किन्तु आज हम असीम धन्यवाद कहेंगे जो भारतीय क्रिकेट टीम की सफलता से प्रेरित होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आ गया है। लेकिन भारत में फुटबॉल जंगल में फैली आग की तरह धीरे-धीरे एक औसत खेल प्रशंसक के अंतःकरण में आ रही है, चूकिं नई भारतीय सुपर लीग के साथ और एशियाई टूर्नामेंट में बेंगलुरू एफसी जैसे आई लीग क्लब की सफलता इसका जीवंत उदहारण हैं। भारत में फुटबॉल का स्तर हमेशा से ऐसा नहीं था, भारतीय फुटबॉल का 50 वें और 60 के दशक में स्वर्ण काल था जब राष्ट्रीय टीम को एशिया में सर्वश्रेष्ठ टीमों में से एक माना जाता था। वर्ष 1950 में भारत ने ब्राजील में खेली जा रही फुटबॉल विश्व कप के लिए क्वालिफाई तो किया, लेकिन उसने खेलने के लिए मना कर दिया।इसका एक कारण ये भी था कि खेलने के लिए फुटबॉल बूट पहनने पड़ते, जबकि भारतीय खिलाड़ियों को नंगे पांव खेलने की आदत थी। लेकिन पिछले कुछ साल में क्रिकेट के दीवाने देश में फुटबॉल को बढ़ावा देने की उम्मीदें काफी बढ़ी हैं। अगर बात की जाये 70 के दशक की, तो भारतीय फुटबॉल के स्तर में गिरावट का दौर शुरु होने से पहले विश्व फुटबॉल ने सैयद अब्दुल रहीम जैसे शानदार भारतीय खिलाड़ी का शानदार दौर भी देखा। ठीक इसके बाद ऐसा दौर आ गया कि भारतीय फुटबॉल सिर्फ़ बंगाल, केरल और गोवा के क्लबों तक सीमित रह गया, कुछ लोग ही प्रशंसक के रूप में भावात्मक तरीके से जुड़े रहे। इसके उपरांत एक बार फिर 1990 और 2000 के दशक में स्टीफन कॉंन्सटाइन और बाब हॉटन जैसे कई अच्छे फुटबॉल खिलाड़ियों की वजह से भारत ने एशिया महाद्वीप में अलग मान्यता और सम्मान हासिल किया। चलिए हम चर्चा करते हैं भारतीय फुटबॉल के 10 सर्वश्रेष्ठ खिलाडियों की, जिन्होंने फुटबॉल की दुनिया में अपनी अलग ही जगह बनाई। क्लाईमैक्स लॉरेंस क्लाइमैक्स लॉरेंस कई वर्षों तक भारतीय फुटबॉल टीम के लिए खेले और अब तक के सबसे सफलतम भारतीय फुटबॉलर्स में से एक साबित हुए। इनका जन्म गोवा में हुआ था और ये बेहतरीन मिडफील्डर भारतीय फुटबॉल की लंबे समय तक धुरी बना रहा। अपने कैरियर में क्लाईमैक्स सालगांवकर, ईस्ट बंगाल, डेम्पो जैसे क्लबों के लिए भी खेले। क्लाइमेक्स मैदान में एक डेंजर मिडफील्डर होने के साथ ही स्वभाव से बहुत ही सीधे औऱ सरल इंसान थे। जब तक वो टीम का हिस्सा रहे तब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनके बारे में उनके कोच से लेकर किसी भी खिलाड़ी ने कभी कोई सवाल उठाए हों । क्लाईमैक्स लॉरेंस ने अपने अंतर्राष्ट्रीय कैरियर की शुरुआत सन् 2002 में स्टीफन कॉन्सटैन्टाइन के साथ की(जब वो भारतीय कोच के रूप में पहली बार देखे गए)। उनके कैरियर में सबसे बेहतरीन पल 2008 एएफसी चैलेंज कप के फाइनल में आया, जब उन्होंने अफगानिस्तान के खिलाफ 91 वें मिनट में शानदार गोल कर अपनी टीम को जीत दिलाई। क्लाईमैक्स के नाम 74 इंटरनेशनल कैप्स हैं, जो उनके अलावा केवल भूटिया, विजयन और छेत्री जैसे महान खिलाड़ी ही हासिल कर सके हैं। यही सब बातें हैं जो 2012 में फुटबॉल को अलविदा कहने वाले इस खिलाड़ी को भारत का महान फुटबॉलर बनाती हैं। गोस्था पाल भारतीय फुटबॉल जगत में गोस्था पाल का नाम बहुत इज्जत से लिया जाता है। क्योंकि गोस्था अपने कैरियर के दौरान नंगे पांव खेले और उन्हें अपने दौर में टीम का बेहतरीन डिफेंडर माना जाता था। पाल तत्कालीन भारत में जिसे अब हम बांग्लादेश कहते हैं वहां 1896 में पैदा हुए। गोस्था पाल के फुटबॉल सफर का आगाज तब हुआ, जब उन्होंने भारत का मशहूर मोहन बगान जिसकी (कमान कालीचरण मित्रा के हाथों में थी) ज्वाइन किया तब उनकी उमर सिर्फ़ 16 साल थी। गोस्था पाल राइट-बैक खेलते थे टीम के लिए और अपने बेखौफ खेल के लिए जाते थे, उन्हें लोग 'चिनेर पचीर' के नाम से भी बुलाते थे जिसका हिंदी में मतलब चीन की दीवार है। गोस्था पाल मोहन बागान के लिए 1912 से 1936 तक खेले और इस दौरान वो 1921 से 1936 तक टीम के कप्तान रहे। 1924 में पाल भारतीय टीम के कप्तान बने, तगड़ी कद काठी वाले इस प्लेयर को विदेशी धरती पर पहला भारतीय फुटबॉल कप्तान बनने का गौरव हासिल हुआ। इस महान फुटबॉलर ने 1935 में अपने रिटायरमेंट की घोषणा की पर वो हमेशा अपने फैंस के दिलों मे बसे रहे। पाल पहले भारतीय फुटबॉलर थे जिन्हें 1962 में पद्मश्री जैसे खिताब से नवाजा गया। 9 अप्रैल 1976 को इस महान खिलाड़ी ने दुनिया को अलविदा कह दिया, पाल की याद में कोलकाता के ईडन गार्डन में उनकी एक मूर्ती बनाई गई और शहर की एक सड़क का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है, पल भारतीय फुटबॉल के महान खिलाडियों में से एक हैं। पीटर थंगराज भारतीय फुटबॉल इतिहास में अगर कोई महान गोलकीपर हुआ हैं तो पीटर थंगराज का नाम लेना गलत नहीं होगा। लंबे से कद के इस खिलाड़ी का अकेले दम पर कड़े संरक्षण का लोहा पूरे देश में माना जाता था। वह हैदराबाद में पैदा हुए, थंगराज ने अपने कैरियर की शुरुआत मद्रास रेजिमेंटल सेंटर (MCR) से सेंटर फॉर्वड प्लेयर के रूप में की । 1955 और 1958 में उनकी टीम को डूरंड कप जिताने में थंगराज का खासा योगदान रहा।उन्होंने 1955 में नेशनल टीमके लिए डेब्यू किया, जब वो चार देशों के टूर्नामेंट में भारतीय टीम के गोलकीपर के रूप में भाग ले रहे थे, जब थंगराज के रूप में दशकों बाद भारत को एक फर्स्ट चॉइस गोलकीपर मिला था। अपने बेहतरीन इंटरनेशनल कैरियर के दौरान थंगराज 1956 और 1960 में ओलंपिक में भारतीय टीम का हिस्सा रहे और इसके साथ ही 1958 और 1962 में टोक्यो और जकार्ता एशियन गेम्स में भारत की कमान संभाली(जहां भारत ने गोल्ड जीते) और 1966 में बैंकॉक में भी टीम को लीड किया । सन्यास के बाद भी कोलकाता जाइन्ट्स (1963-65) और मोहम्डन स्पोर्टिंग के लिए (1965-71) तक खेलते रहे। थंगराज लेव यासीन के बड़े फैंन माने जाते थे,उन्हें1958 में एशिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के लिए नामित किया गया और 1967 में अर्जुन अवॉर्ड मिला । पीटर दो बार एशियन ऑल स्टार्स टीम का हिस्सा रहे और 1971 में उन्हें सर्वश्रैष्ठ गोलकीपर के सम्मान से नवाजा गया और 1971 में उन्होंने अपने फुटबॉल के शानदार सफ़र को अलविदा कह दिया । जरनैल सिंह ढिल्लों जरनैल सिंह ढिल्लों भारतीय फुटबॉल जगत के दिग्गज नामों में शुमार है। एशियन गेम्स 1962, जकार्ता में भारत की शानदार जीत में जरनैल सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन का बड़ा योगदान रहा। जरनैल भारत के लिए अब तक के सबसे बेहतरीन डिफेंडर माने जाते हैं जो जरूरत पड़ने पर टीम के लिए स्ट्राइकर रूप में भी खेलते रहे। पंजाब से ताल्लुक रखने वाले जरनैल अपने फुटबॉल खेलने के सपनों को पूरा करने के लिए 1936 में कोलकाता चले आए। पहले वो राजस्थान क्लब और फिर मोहन बगान के लिए खेले, जहां वो हरी और महरून जर्सी में एक बेजोड़ खिलाड़ी के रूप में जाने जाते थे। जरनैल सिंह मैदान में एक आक्रामक डिफेंडर रहे, 1962 में एशियन गेम्स जकार्ता में सेमीफाइनल मैच के दौरान चोटिल होने के बावजूद फाइनल में उनके बेहतरीन योगदान को हमेशा याद किया जाता है जबकि उन्हें चोट की वजह से 6 टांके आए थे। जब इस मैच के दौरान कोच सैयद अब्दुल रहीम ने उन्हें सेंटर फॉरवर्ड खेलने को कहा और जरनैल सिंह ने अपने सिर से एक गोल जड़ दिया। 1964 एशिया कप तेलअवीव में भी वो भारत को अपनी हुनर और कुशलता के दम पर फाइनल तक ले गए, जहां भारत रनर-अप रहा । वो अपने समय के बेहतरीन खिलाड़ी रहे, वे इकलौते ऐसे भारतीय फुटबॉलर थे जिन्होंने उस समय अपनी जगह एशियन ऑल स्टार टीम में बनाई थी । 1964 में जरनैल सिंह को अर्जुन अवॉर्ड मिला । सन् 2000 में इस महान खिलाड़ी ने अपनी आखिरी सांस ली। सुबीमाल चुनी गोस्वामी अपनी बहुमुखी प्रतिभा के लिए मशहूर ये फुटबॉलर सिर्फ चुनी गोस्वामी के नाम से जाना जाता था। गोस्वामी एशियन गेम्स जकार्ता(1962) में विजयी रही भारतीय टीम के कप्तान थे और उन्होंने 1964 एशिया कप सॉकर टूर्नामेंट में (जो इजराइल में हो रहे था) में टीम को सिल्वर मेडल दिलाया। गोस्वामी एक बेहतरीन स्ट्राइकर थे जो अपनी सूझ-बूझ, बॉल पर गजब के कन्ट्रोल और खेल की शानदार समझ के लिए जाने जाते थे। गोस्वामी दूसरे खेलों के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने बंगाल के लिए प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते हुए रणजी ट्रॉफी में भी भाग लिया । 1938 में बंगाल में जन्मे इस खिलाड़ी ने मोहन बगान क्लब 8 साल की छोटी उम्र में ज्वॉइन किया। वो अपने कैरियर में कभी किसी और क्लब के लिए नहीं खेले। एक समय पर ये चर्चा जोरों पर थी कि टोटेनहैम होट्स्पर्स जैसा क्लब इस महान स्ट्राइकर को अपने लिए खेलते देखना चाहते हैं। गोस्वामी का नेशनल टीम में पदार्पण 1956 में हुआ जब भारतीय टीम ने चाइना की ओलंपिक टीम को 1-0 से शिकस्त दी । वे भारतीय टीम के लिए लगभग 50 मैच खेले और बेहतरीन 32 गोल किए। गोस्वामी 1962 में सर्वश्रेष्ठ एशियाई स्ट्राइकर के लिए नामित किये गए, 1963 में उन्हें अर्जुन और 1983 में पद्म श्री संम्मान से नवाजा गया। सुनील छेत्री जब बात सुनील छेत्री की आती तो वर्तमान दौर में वो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं क्योकिं आज फुटबाल जगत में बड़ा नाम हैं। सिकंदराबाद में जन्मे इस स्ट्राइकर ने हाल ही के दिनों में भारतीय फुटबॉल को नई ऊचाईयां दी हैं। छेत्री भारतीय टीम के कप्तान होने के साथ साथ टीम के सबसे ज्यादा कैप वाले और सबसे अधिक 94 मैचों में 54 गोल करके टॉप गोल स्कोरर हैं । 17 साल की उम्र में सुनील ने अपना फुटबॉल जीवन दिल्ली शहर में 2001 में शुरू किया। एक साल बाद ही तुरंत उनकी प्रतिभा को मोहन बागान ने समझा और उन्हें शामिल कर लिया। उस दिन से सुनील के पेशेवर फुटबॉल जीवन का आरंभ हुआ और फिर क्या था उसने कभी पीछे मुड़ के कभी नहीं देखा। सुनील ने भारतीय टीम के लिए जूनियर ओर सीनियर दोनो श्रेणियों में भी खेला है। वह अभी भारतीय टीम के कप्तान है। 2007 में उनके कम्बोडिया के विरुद्ध 2 गोलों ने उन्हे मानो जैसे उन्हे एक रात में ही हीरो बना दिया। पूरे विश्व ने उनकी प्रतिभा को देखा और उसकी सराहना की। 3 गोल एएफसी चॅलेंज कप 2008 में ताजिकिस्तान के विरुद्ध मारकर उन्होने भारत को 27 साल के बाद एशिया कप के लिए प्रवेश दिलाया। इतनी सफ़लता पाने के बाद उन्हे दूसरे देशों से फुटबॉल खेलने के लिए ऑफर आने लगे। अफवाहें यह भी थी की वो इंग्लिश प्रीमियर लीग में लिए खेल सकते हैं परंतु किसी कारणवश नहीं खेल पाए। सुनील ने 2010 में कंसास सिटी के लिए मेजर लीग सॉकर यूएसए में खेलने के लिए गये। वह तीसरे भारतीय बने जो भारत के बाहर खेलने के लिए गये हों। 2012 में उन्होंने स्पोर्टिंग क्लब डी पुर्तगाल के रिज़र्व्स टीम की तरफ से खेला। वहाँ भी उन्होने अपने अच्छे खेल से सभी के दिल को जीत लिया। स्पोर्टिंग क्लब डी पुर्तगाल के साथ अनुबंध खत्म होते ही उन्होंने बेंगलूर फुटबॉल क्लब के साथ अनुबंध कर लिया। अभी वह इस क्लब के कप्तान है और उनके खेल से टीम अभी आई-लीग के नंबर एक के खिलाड़ी हैं। उन्होने अभी तक इंडिया टीम की तरफ़ से 72 मैच में 41 गोल दाग चुके है। यह अभी तक का सर्वाधिक स्कोर है जो किसी भारतीय ने किया हो। सुनील ने भारत को 2007, 2009, 2012 में नेहरू कप जीता रखा है और 2008 में एशिया कप के लिए क्वालीफाई भी करवाया था। इसमें कोई शक नहीं है एक वह भारत के सबसे अच्छे खिलाड़ी है। अर्जुन पुरस्कार भी सुनील जीत चुके हैं। एनडीटीवी इंडिया ने उन्हें प्लेयर ऑफ द एअर का अवॉर्ड 2007 में दिया था और तीन बार वो ऐइफा प्लेयर ऑफ द एअर का अवॉर्ड भी जीत चुके है। ये सब पुरस्कार बताते हैं कि ऐसा कारनामा कोई आम खिलाड़ी नहीं बल्कि एक प्रतिभावान खिलाड़ी ही कर सकता है। निश्चित रूप से सुनील छेत्री भारत का नाम फुटबॉल जगत में आगे ले जा रहे हैं। सुनील छेत्री वर्तमान में सक्रिय फुटबॉलरों के बीच सर्वाधिक अंतरराष्ट्रीय गोल करने वालों में चौथे स्थान पर भी काबिज हो गए हैं। छेत्री ने अब तक 94 मैच खेले हैं। उन्होंने बेंगलुरू में 13 जून को खेले गए 2019 एशिया कप क्वालिफायर मैच में भारत की किर्गिस्तान पर 1-0 से जीत के दौरान अपना 54वां अंतरराष्ट्रीय गोल करते हुए इंग्लैंड के स्टाइकर वायने रूनी (119 मैचों में 53 गोल) को पीछे छोड़ा। शैलेन्द्र नाथ मन्ना अगर हम फुटबॉल के बारे में बात करें और मन्ना का जिक्र न हो तो उनके चाहने वालों के साथ नाइंसाफी होगी, भारत की धरती में पैदा हुए मन्ना फुटबॉल की दुनिया के एक शानदार खिलाड़ी के रूप में गिने जाते हैं । वो 1948 में ओलंपिक में भाग ले रही भारतीय टीम के हिस्सा थे। इसी जादुई डिफेंडर की अगुवाई में इंडियन टीम ने 1951 के एशियन गेम्स में गोल्ड जीता और इसके अलावा 1952 से 1956 तक लगातार चार साल तक चतुष्कोणीय टूर्नामेंट जीता। वे इकलौते ऐसे एशियन खिलाड़ी रहे जिन्हें विश्व के 10 बेहतरीन कप्तानों की लिस्ट में इंग्लिश फुटबॉल एसोशिएसन ने जगह दी। इस महान खिलाड़ी का जन्म 1924 में हावड़ा में हुआ और 1942 में मन्ना फेमस मोहन बागान का हिस्सा बन गए। वह 19 साल तक निरंतर टीम के लिए खेले और रिटायरमेंट के बाद 2001 ने उन्हें मोहन बागान रत्न दिया गया। मन्ना अपने फैन्स के लिए हमेशा एक स्टार प्लेयर रहे और वह सर्वकालिक महान खिलाड़ी हैं। आइएम विजयन आइएम विजयन भारतीय फुटबॉल के इतिहास का मशहूर नाम है जो किसी पहचान का मोहताज नहीं है। अपनी रफ़्तार के बल पर ब्लैकबक के नाम से मशहूर ये खिलाड़ी भारत के लिए एक महान स्ट्राइकर माना जाता है। विजयन की कहानी सच में किसी कहानी की तरह ही है, फुटबॉलर बनने से पहले वो स्टेडियम के बाहर सोड़ा बेचा करते थे। फिर उनके टैलेंट को नई जमीन केरल पुलिस ने दी उसके बाद इस खिलाड़ी ने मुड़कर कभी पीछे नहीं देखा। उन्होंने मोहन बागान, एफसी कोच्चिन, ईस्ट बंगाल जैसे नामी क्लब्स की तरफ से फुटबॉल खेली और एक समय वो देश के हाईएस्ट पेड फुटबॉलर भी बने। विजयन ने अपने कैरियर के दौरान देश के लिए 79 मैच खेलके 40 गोल लगाए जो कि किसी भी स्ट्राइकर के लिए एक गर्व की बात है। उन्होंने अपना इंटरनेशनल डेब्यू 1992 में किया। 2003 एफ्रो-एशियन के दौरान उन्होंने फुटबॉल को अलविदा कहा, तब तक वो भारतीय टीम का हिस्सा बने रहे। लेकिन उनके कैरियर का सबसे शानदार पल 1999 में आया जब उन्होंने सैफ खेलों में भूटान के खिलाफ मैच में सिर्फ 12वे सेकंड में ही गोल दाग दिया, यह इंटरनेशनल फुटबॉल इतिहास का अब तक का तीसरा सबसे फास्ट गोल था। विजयन के खेल को थाई और मलेशियन क्लबों में खासी सराहना मिली। आईएम विजयन इकलौते ऐसे खिलाड़ी रहे, जिन्हें एक से अधिक बार AIFF प्लेयर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिला वो 1993, 1997 और 1999 में जीते। पीके बैनर्जी अपने समय के महान स्ट्राइकर प्रमोद कुमार बैनर्जी निश्चित तौर पर भारतीय फुटबॉल इतिहास के बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार हैं। बैनर्जी ने पीटर थंगराज के साथ 1955 ढाका में चार देशों के टूर्नामेंट से अपना अंतर्राष्ट्रीय कैरियर शुरु किया। बैनर्जी 1962 की एशियन गेम्स विजेता भारतीय टीम का हिस्सा रहे जहां उनहोंने जापान , साउथ कोरिया और थाईलैंड़ जैसी टीमों के खिलाफ गोल दागे। बंगाल के जलपाईगुड़ी होते हुए पहले बैनर्जी ने आर्यन क्लब और फिर पश्चिमी रेलवे के लिए बतौर कप्तान खेले। 1960 के समर ओलंपिक रोम में वे भारत के कप्तान बने, जहां उन्होंने फ्रांस के सामने क्वालिफायर मुकाबले में गोल दागकर 1-1 से मैच ड्रॉ कराया। बैनर्जी ने क्वालालंपुर मरडेका कप में भारत का तीन बार प्रतिनिधित्व किया, जहां भारत 1959 और 1964 सिलवर मेडल जीता और 1965 में ब्रोंज मेडल अपने नाम किया । हालांकि इस बात का कोई ऑफिसियल रिकॉर्ड पर बैनर्जी ने अपने कैरियर के 84 मैचों में 60 गोल किये। फीफा ने इस महान खिलाड़ी को 20वी सदी का भारतीय खिलाड़ी फुटबॉलर घोषित किया। बैनर्जी एकलौते ऐसे एशियाई फुटबॉलर हैं जिन्हें 2004 में 'FIFA centennial order of merit' और अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति द्वारा फेयर प्ले पुरस्कार से सम्मानित किया गया । बैनर्जी ने कोचिंग में भी पूर्वी बंगाल , मोहन बगान और भारतीय टीम को भी अपनी सफल सेवाएं दी, इसके आलावा बैनर्जी को पीके के नाम से भी जाना जाता था। बाइचुंग भूटिया भारत के प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ियों में से एक हैं। 1999 में ‘अर्जुन पुरुस्कार’ जीतने वाले बाइचुंग भूटिया अपने प्रशंसकों के बीच अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल क्षेत्र में भारतीय फ़ुटबॉल टीम के ‘टार्च बियरर’ अर्थात मार्गदर्शक के नाम से जाने जाते है। वह भारतीय फ़ुटबॉल के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, उनका खेलने का अलग अंदाज है, उनमें उत्तम दर्जे की स्ट्राइक करने की क्षमता है। वह वास्तव में अन्तरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी हैं। वह भारत के पहले फ़ुटबॉल खिलाड़ी है, जिन्हें इंग्लिश क्लब के लिए खेलने के लिए आमंत्रित किया गया था। बाइचुंग भूटिया ने सर्वप्रथम 11 वर्ष की आयु में ताशी नांगियाल अकादमी, गंगटोक में भाग लेने के लिए साई स्कालरशिप जीती। उनकी उच्चतर माध्यमिक शिक्षा ताशी नांगियाल से हुई। उन्होंने सिक्किम में अनेक स्कूल व क्लब प्रतियोगिताओं में बचपन से ही हिस्सा लिया। 1991 में सुब्रोतो कप में किया गया उनका अच्छा प्रदर्शन उन्हें प्रकाश में लाया और उन्हें आगे बढ़ने का मौका मिला। इस खेल में उन्हें सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया गया। 1990 और 2000 के दशक में भूटिया भारतीय फुटबॉल को अकेले दम पर आगे बढ़ाया , खास तौर पर 2003 में विजयन की रिटायरमेंट के के बाद, इससे पहले भूटिया और विजयन की जोड़ी को लोग लोहा मानते थे। विजयन भूटिया को गॉड गिफ्टिड फुटबॉलर मानते थे । 1995 में भूटिया ने 19 साल की उम्र में ईस्ट बंगाल के साथ अपने प्रोफेशनल कैरियर की शुरूआत की । उसके बाद से वो भारत के लिए 100 से अधिक मैच खेले हालांकि फीफा के अनुसार आधिकारिक तौर पर 84 की गिनती है जिसमें उन्होंने लगभग 40 गोल दागे । 2004 में बाइचुंग ने एक समाचार को साक्षात्कार दिया। उनसे पूछा कि "जब आपको भारतीय बैकहम कहा जाता है तो आपको कैसा लगता है" तो उन्होंने "कहा यदि मुझे कोई भारत का बेकहम बुलाता है तो निश्चय ही मुझे बहुत अच्छा लगता है।" बाइचुंग से उनके टैम्पर के बारे में पूछा गया कि क्या वह जल्दी ही क्रोधित हो जाते हैं और वह आखिरी बार कब गुस्सा हुए थे तो वह बोले- "मैं बहुत ही शान्त इंसान हूं, इसलिए मुझे गुस्सा बहुत कम आता है। मुझे याद नहीं कि कब मैं गुस्सा हुआ था।" बाइचुंग को फुटबॉल प्रशंसको के बीच ‘सैक्स सिंबल’ कहा जाता है। इस बारे में प्रतिक्रिया जताते हुए उन्होंने कहा था- "किसी के ऐसा कहने पर मुझे कुछ बुरा नहीं लगता।" सन् 1999 में बाईचुंग को पहली बार विदेशी धरती पर ब्यूरी क्लब में फसी (FC) की तरफ से खेलने का मौका मिला और जिसके साथ वो पहले ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जिसने यूरोपियन क्लब के साथ कॉन्ट्रेक्ट किया और मोहम्मद सलीम के बाद दूसरे ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जो यूरोप में प्रोफेनल तौर पर खेले , कल्ब के दिवालिया होने से पहले वे ब्यूरी के लिए 30 मैच खेले।बीच में कुछ समय भूटिया मलेशिया में पेराक FA और सेलांगौर MK के लिए भी खेले । लेखक: अश्विन मुरलीधरन अनुवादक: मोहन कुमार