#2 ईराक फुटबॉल टीम और उम्मीदें यह 2007 में AFC एशियाई कप फाइनल का नजारा था। ऐंसा लग रहा था कि यह कोई बड़ा अवसर नहीं हैं क्योंकि 60000 लोग ही जकार्ता के इस स्टेडियम में मौजूद थे। जबकि यहां इससे दुगुने लोग आ सकते थे। पर यहां असली कहानी तो ईराक की थी जो अमेरिकी विद्रोह के कारण घुटने पर खड़ा था। लेकिन उसने सभी बाधाओं को पार करते हुए अपने देशवासियों की उम्मीदों और सपनों को बनाए रखा। इराकी फुटबॉल टीम ने आंतरिक संघर्ष, विदेशी आक्रमण और परतंत्रता से जी रहे, अपने लोगों को एक मौका दिया जिससे वह भाईचारे के साथ खुशी मना सकें, उत्सव मना सकें। इराक-सऊदी अरब का फाइनल में पहुचना एक नाटकीय घटना के समान था। सेमीफाइनल में दक्षिण कोरिया पर इराक की जीत के बाद, आत्मघाती हमलावरों के एक समूह ने खुद को उड़ा लिया था। जिससे 50 लोगों की मौत हो गई थी और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। यह सभ देखकर इराक टीम वापस आने पर विचार कर रहीं थी। लेकिन इराक टीम के कप्तान यूनिस महमूद के संकल्प के कारण वह वही रहे। उन्होंने घटना के बाद देखा कि एक महिला अपने 12 वर्षीय बच्चे के मृत शरीर पर रो रही है उनके अनुसार यह लड़का इराकी राष्ट्रीय टीम के लिए बलिदान था। यूनिस ने सोचा कि यदि अल्लाह सभी को एक रस्सी के साथ कुएं में फेक रहे हैं तो वह अपनी आंखे बंद करके नहीं जा सकते। उन्होंने फैसला किया की टीम मातृभूमि के लिए कप जीतेगी और यहीं रहेगी। यूनिस ने शिया, सुन्नी और कुर्दों की समुदाय की टीम का नेतृत्व किया, जो सद्दाम हुसैन के शासन काल में एक-दूसरे के खून के प्यासे रहते थे। यूनिस ने खेल के 75 वें मिनट में, फाइनल के एकमात्र गोल किया और उनकी टीम विजयी हो गई। इस दिन सभी लोग सामाजिक-राजनीतिक मतभेद भूलाकर, घरों से बाहर निकलकर आपस में अपनी टीम का जश्न मनाने लगे थे। इस जीत के बाद इराक में जातीय हिंसा की घटनाओं में 50 फीसदी से ज्यादा की कमी आई। कोई भी बढ़ा बदलाव हम आपस में लड़कर नहीं, एक-दूसरे के साथ मिलकर ही ला सकते हैं।