फ़ुटबॉल का महासंग्राम यानी फ़ीफ़ा वर्ल्डकप के 21वें संस्करण की शुरुआत 14 जून से रूस में होने जा रही है, 15 जुलाई तक चलने वाले इस एक महीने के टूर्नामेंट पर पूरी दुनिया की नज़रें होंगी। 4 सालों में एक बार 32 टीमों के बीच होने वाले कुल 64 महामुक़ाबले का इंतज़ार फ़ुटबॉल प्रेमियों को बेसब्री से रहता है। इस दौरान भारत में भी फ़ुटबॉल फ़ीवर सिर चढ़कर बोलेगा, लेकिन विडंबना ये है कि भारतीय फ़ुटबॉल प्रेमी अपने देश को नहीं बल्कि कोई ब्राज़ील तो कोई जर्मनी तो कोई स्पेन की जीत के लिए दुआ कर रहा होगा। 1930 से फ़ीफ़ा वर्ल्डकप की शुरुआत हुई थी और हर 4 सालों पर होने वाले इस फ़ुटबॉल के महासंग्राम में सबसे ज़्यादा 5 बार चैंपियन का तमग़ा ब्राज़ील के सिर बंधा है जबकि मौजूदा चैंपियन जर्मनी ने 4 बार इस ख़िताब को अपने नाम किया है। लेकिन ख़िताब जीतना तो दूर भारत आज तक एक बार भी इस टूर्नामेंट का हिस्सा नहीं हो पाया है। ऐसा नहीं है कि टीम इंडिया कभी इसके लिए क्वालिफ़ाई नहीं कर पाई, दरअसल 1950 में ब्राज़ील में हुए फ़ीफ़ा वर्ल्डकप में भारत ने क्वालिफ़ाई कर लिया था।
जूतों की वजह से छिन गया था भारत का सपना !
लेकिन टूर्नामेंट में खेलने का सौभाग्य इस देश को हासिल नहीं हो पाया। आख़िर क्वालिफ़ाई करने के बाद भी भारत क्यों नहीं खेल पाया इसपर से पर्दा तो आजतक नहीं हटा लेकिन दो बातें जो सामने आती हैं उनमें प्रमुख ये है कि तब भारतीय खिलाड़ी बिना जूतों के नंगे पैर फ़ुटबॉल खेलते थे। लेकिन नंगे पैर उन्हें उस टूर्नामेंट में खेलने की इजाज़त नहीं मिली जिसकी वजह से भारत ने नाम वापस से लिया। जबकि फ़ुटबॉल के जानकार और पूर्व फ़ुटबॉल खिलाड़ियों का मानना है कि ऐसा नहीं था, बल्कि उस समय इतने पैसे नहीं थे कि वह अपने खिलाड़ियों को ब्राज़ील भेज पाते। बहरहाल, हक़ीकत चाहे जो हो लेकिन सच यही है कि भारत ने आजतक फ़ीफ़ा वर्ल्डकप में शिरकत नहीं की है। ऐसा नहीं है कि फ़ुटबॉल में हमारा देश हमेशा पीछे रहा है, बल्कि 1950 और 1960 के दशक में भारत को एशिया में फ़ुटबॉल का सिरमौर माना जाता था। इस दौरान भारत एशिया में नंबर-1 टीम भी रहा और 1954 एशियाई खेलों में तो भारत फ़ुटबॉल में दूसरे स्थान पर रहा। 1956 ओलंपिक में भारतीय फ़ुटबॉल टीम ने सेमीफ़ाइनल तक का सफ़र तय किया था। 60 के दशक के बाद से भारत की फुटबॉल टीम पिछड़ गई, हालांकि एक बार फिर पिछले कुछ सालों से इस टीम ने कमाल का प्रदर्शन किया है। यही वजह है कि भारत मौजूदा फ़ीफ़ा रैंकिंग में टॉप-100 की टीमों में है, भारत फ़िलहाल 97वें रैंकिंग की टीम है।
हाल का प्रदर्शन सुनहरे अतीत की दिला रहा है याद
भारतीय फ़ुटबॉल टीम ने हाल फ़िलहाल में अपने से ऊपर की रैंकिंग वाली टीमों को भी हराया है जिसके बाद एक उम्मीद जगी है। हालांकि सबसे बड़ी समस्या है कि भारत बहुत कम अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलता है जिसका मतलब कम रैंकिंग प्वाइंट्स और रैंकिंग में नीचे रहने वाली टीमों को क्वालिफ़िकेशन के लिए मुश्किल ग्रुप मिलता है। भारत कोई 6-7 महीने में 1 मैच खेलता है, और ये एक बड़ी वजह है कि टीम इंडिया को फ़ीफ़ा वर्ल्डकप में क्वालिफ़ाई करने में मुश्किल हो रही है। एक वक़्त वह भी था जब अर्जेंटीना जैसी शक्तिशाली टीम भारत आकर खेला करती थी लेकिन अब कई सालों में कोई एक-आध अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट होता है। अगर आप लगातार प्रतिस्पर्धि टूर्नामेंट नहीं खेलेंगे तो ज़ाहिर है फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप जैसे टूर्नामेंट में क्वालिफ़ाई करने में मुश्किल आएगी। हालांकि, पिछले साल भारत में हुए फ़ीफ़ा अंडर-17 वर्ल्डकप को भारतीय फ़ुटबॉल में एक निर्णायक मोड़ के तौर पर देखा जा रहा है। भारतीय फ़ुटबॉल टीम के कोच स्टीफ़न कोन्सटैनटीन भी ये मानते हैं कि भारत के लिए हालिया कुछ वक़्त अच्छा जा रहा है, और इसी तरह अगर टीम इंडिया लगातार बेहतर प्रदर्शन करती रही तो क़तर में होने वाले 2022 फ़ीफ़ा वर्ल्डकप में भारत का फ़ीफ़ा वर्ल्डकप में खेलने का इंतज़ार ख़त्म हो सकता है। हालांकि उसके लिए सबसे ज़रूरी है एशियन कप 2019 में भारत का प्रदर्शन, जहां टीम इंडिया के सामने थाईलैंड, यूएई और बहरीन की चुनौती होगी। जिनमें थाईलैंड और यूएई पर तो भारत को पहले जीत मिल चुकी है लेकिन अब तक 5 मुक़ाबलों में कभी भी भारत ने बहरीन को शिकस्त नहीं दी है। वक़्त के साथ बदलते भारतीय फ़ुटबॉल से उम्मीद है कि इस चुनौती को भी ये टीम पार करे।
ज़मीनी स्तर से ही करनी होगी शुरुआत
भारतीय फ़ुटबॉल की तस्वीर अगर बदलनी है और पुराने इतिहास को दोहराना है तो फिर इसकी शुरुआत ज़मीनी स्तर से ही करनी होगी। इसके लिए एक बेहतरीन प्लानिंग के साथ साथ उसे सही समय और सही तरीक़े से आमली जामा पहनाना होगा। ये तब मुमकिन है जब स्कूली स्तर से ही इस खेल की ओर बच्चों का रुझान लाया जाए, अगर हर स्कूलों में अच्छी प्रतिस्पर्धा कराई जाए तो हमें सुनील छेत्री और बाइचुंग भुटिया जैसे कई खिलाड़ी मिल सकते हैं। इसके लिए बेहतर प्लानिंग और कार्यक्रम की ज़रूरत है ताकि 2030 फ़ीफ़ा वर्ल्डकप तक इसका असर देखा जा सके, या यूं कहें कि 2030 फ़ीफ़ा वर्ल्डकप की तैयारी अभी से ही करनी होगी। इसके अलावा एक विकल्प ये भी है कि अगर भारत को अंडर-17 फ़ीफ़ा वर्ल्डकप की तरह सीनियर वर्ल्डकप की मेज़बानी का मौक़ा मिल जाए तो फिर मेज़बान देश होने के नाते भारत को सीधे खेलने का अवसर मिल जाएगा। ताकि 88 सालों से चले आ रहे सूखे को ख़त्म करते हुए भारतीय फ़ुटबॉल टीम देशवासियों को ब्राज़ील या जर्मनी की जगह अपने देश के लिए चीयर करने का मौक़ा दे। इसका दूसरा फ़ायदा ये भी है कि इससे इस खेल के प्रति सभी का रूझान बढ़ेगा जो हमें अंडर-17 वर्ल्डकप की मेज़बानी के बाद भी देखने को मिला है। उम्मीद यही है कि आने वाले समय में भारतीय फ़ुटबॉल एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी खोई चमक और सुनहरा अतीत वापस पाए।