साल 1928 से लेकर साल 1964 तक हुए आठ ओलिंपिक खेलों में सात बार हॉकी का स्वर्ण पदक, 1960 में एक बार रजत पदक और 1968 और 1972 में ओलिंपिक कांस्य पदक जीतनेवाले उस देश की हॉकी को क्या कहा जाए जिसके खेल की गिरावट दुनिया की एक सबसे अजीबोगरीब कहानी है।
यह है भारत और हॉकी की ऐसी असंतुलित कहानी जिसका कारण अभी तक लोग खोज ही रहे हैं। दो कांस्य से संतोष करने के बाद 1980 के मॉस्को ओलंपिक में भारत की लॉटरी लगी जब अमेरिका के नेतृत्व में सभी पश्चिमी देशों के साथ पाकिस्तान ने भी ओलिंपिक का बहिष्कार किया और भारत ने इसका पूरा फायदा उठाया। लेकिन इसी के साथ भारतीय हॉकी का ओलिंपिक पदक सफर मॉस्को ओलंपिक के साथ खत्म हो गया। भारत ने यहां आखिरी बार सोना ही बल्कि आखिरी बार कोई पदक जीता।
यह ऐसा स्वर्णकाल था जब हॉकी और भारत एक दूसरे के पूरक हुआ करते थे। भारत के वर्चस्व और दबदबे का यह हाल था कि सारी प्रतिद्वंद्वी टीमें भारत के खिलाफ मैदान पर उतरने से पहले ही आधा मुकाबला हार जाते थे, लेकिन भारत का यह ओलिंपिक वाला दबदबा हॉकी विश्वकप में इसलिए नहीं दिखा क्योंकि इस टूर्नामेंट शुरू होने तक उसका गोल्डन समय निकल गया था।
इसीलिए भारतीय टीम ने सिर्फ एकमात्र बार हॉकी का विश्वकप साल 1975 में जीता। वैसे भारत के लिए यह और भी अधिक यादगार इसलिए बना क्योंक़ि भारत ने यह ट्रॉफी पाकिस्तान को फाइनल में हराकर जीती। सिर्फ इस एक ट्रॉफी के अलावा भारत का हॉकी विश्वकप में दूसरा सबसे बेस्ट प्रदर्शन 1982 और 1994 में पांचवें स्थान पर रहना ही है।
अब ओडिशा में हो रहे विश्वकप के दौरान कोच हरेंद्र सिंह की अगुवाई में पहली बार भारतीय हॉकी टीम अपनी खोई इज्जत पाने के सबसे करीब है। 1975 में पहला और एकमात्र वर्ल्ड कप गोल्ड जीतने के 43 साल बाद अब 2018 में तीसरी बार हॉकी विश्वकप की मेजबानी करते हुए पहली बार सबसे बेहतरीन फार्म में है।
इस बार 28 नवंबर से शुरू हुआ यह हॉकी महाकुंभ 16 दिसंबर तक भुवनेश्वर में चलेगा जिसमें दुनिया की सबसे बेहतरीन 16 टीमें भाग ले रही हैं। विश्वस्तरीय पदक और ट्रॉफी के मामले में भारतीय हॉकी की झोली में भले ही कुछ विशेष ना हो लेकिन उसने अपने प्रदर्शन से हर जगह अपनी छाप छोड़ी है और हर चैंपियन टीम इससे बचना चाह रही है। एशियाई खेलों का कांस्य और कॉमनवेल्थ गेम्स के चौथे स्थान से इसकी क्षमता को न आंका जाए क्योंकि एक ही मैच से पहले उसका सफर दनदनाता हुआ आगे बढ़ रहा था।